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बुधवार, 20 मार्च 2024

इतनी सारी ख़ुशी (नाओमी शिहाब न्ये Naomi Shihab Nye)



मुश्किल है जान पाना कि क्या करें इतनी सारी ख़ुशी के साथ

दुख के साथ कुछ तो रहता है रगड़ने के लिए

मरहम और कपड़े से एक ज़ख़्म का ख़्याल रखना

जब आसपास की दुनिया गिर पड़े, तो उसके टुकड़े तुम्हें उठाने पड़ेंगे

अपने हाथों में पकड़ने के लिए कुछ…जैसे फाड़े गए टिकट या रेज़गारी।

पर ख़ुशी तैरती है।

उसे तुम्हारी ज़रूरत नहीं कि पकड़ और दबा कर रखो

उसे किसी बात की ज़रूरत नहीं।

ख़ुशी अगले मकान की छत पर चली जाती है गाती हुई

और ग़ायब हो जाती है, अगर चाहे तो।

तुम तो ऐसे भी खुश हो वैसे भी।

कि कभी तुम एक पेड़ पर बने शांत मकान में रहते थे

और अब शोर और धूल की खुली खदान के ऊपर

तुम्हें नाखुश नहीं कर सकती।

हर चीज़ की अपनी ज़िंदगी है

वह कॉफ़ी केक और पके आड़ुओं की संभावना के साथ जाग सकती है...

और उस फ़र्श से भी प्यार कर सकती है, जिसपर झाड़ू लगाई जानी है... दाग़दार कपड़ों और खरखराते रिकार्ड्स से भी

क्योंकि कोई भी जगह इतनी बड़ी नहीं कि

ख़ुशी को भर ले, तुम कंधे उचकाते हो,

हाथ फैलाते हो और वह तुमसे तैरती हुई निकल जाती है

हर उस चीज़ में जिसे तुम छूते हो,

उसके लिए तुम ज़िम्मेदार नहीं

कोई श्रेय तुम नहीं लेते, जैसे रात का आसमान श्रेय नहीं लेता

चाँद का, पर पकड़े रखता है और बाँटता रहता है

और इस तरह से जाना जाता है।



फ़िलिस्तीनी-अमरीकी कवयित्री : नाओमी शिहाब न्ये

मूल अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद: निधीश त्यागी

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023


गुरुवार, 14 मार्च 2024

आपके न रहने पर ... (नंदकिशोर नवल)


मैडम,
आप चली गईं
मुझको अकेला छोड़कर।
अब मेरे नास्ते की चिंता कोई नहीं करता।
खाना भी जैसे-तैसे खा लेता हूँ।
दाइयाँ समय से आती हैं
और अपना फर्ज पूरा कर चली जाती हैं।
बस पुस्तकें मेरे एकांत की संगी हैं,
पर कभी-कभी उनसे भी मन उचट जाता है;
मैं देर तक आँखें बंद कर सोचता रहता हूँ।
रवीन्द्रनाथ की पंक्तियाँ रह-रहकर याद आती हैं -
'सम्मुखे शांतिर पारावार,
भासाओ तरणी हे कर्णधार!'
पर मेरे सामने शांति का कोई पारावार नहीं,
न कोई कर्णधार दीखता है।
फिर भी आप चिंतित न होंगी,
मैं यथाशीघ्र आ रहा हूँ आपके पास।
आपका
नवल


कवि - नंदकिशोर नवल
संकलन - नील जल कुछ और भी धुल गया
संपादक - श्याम कश्यप
प्रकाशक - शिल्पायन, दिल्ली, 2012



पापा की इस कविता के नीचे लिखा है - पत्नी की मृत्यु की कल्पना करके 15.5.11 को रचित। और मैंने इसे निकाला है जब तारीख होने जा रही है 15.3.24 ... और अनायास मन तारीखों के तार, उनके संयोगों को जोड़ने में उलझ गया है। 15 तारीख यानी माँ को गए एक महीना होने को आया और पापा ने 15 तारीख को ही सपना देखा था। भले वह मई महीने की तारीख थी। अरे मई का महीना ? पापा तो मई में ही गए थे ... तीन दिन पहले 12 मई, 2020 को। मई का महीना माँ-पापा की शादी की सालगिरह का महीना है और वह तारीख थी 22 मई, 1959 - बुद्ध पूर्णिमा।

पापा (नंदकिशोर नवल) ने 2011 में यह कविता माँ (रागिनी शर्मा) की गैरमौजूदगी में व्याकुल होकर लिखी थी और मैं पहुँच गई 2011 में जब माँ को इलाज के लिए दिल्ली लेकर आई थी। अचानक माँ भूलने लगी थी - लोगों के नाम-चेहरे उतना नहीं जितना रिमोट चलाना, फोन चलाना जैसे बुनियादी काम। हमें डर लगा कि माँ कहीं डिमेंशिया की चपेट में तो नहीं आ गई। आनन-फानन में दिल्ली में दिखाना तय हुआ। पापा जो कि माँ पर पूरी तरह निर्भर थे, उन्होंने अकेले रहना स्वीकार कर लिया था क्योंकि उन दिनों वे हवाई यात्रा भी नहीं करते थे और ट्रेन से जाने में वक्त लगाना उनको बेकार लगा। उससे भी ज़्यादा यह था कि बच्चे माँ पर फ़ोकस करें और यह भी कि दिल्ली में एम्स के चक्कर काटना उनसे मुमकिन नहीं था। दिल्ली में भी वे रिक्शे पर ही चल पाते थे या हद से हद ऑटो वाले की सीट पर ही आगे बैठते थे - पेट्रोल की गंध उन्हें बर्दाश्त नहीं थी और motion sickness भी था। खैरियत यह हुई कि एम्स में ब्रेन मैपिंग जैसे टेस्ट के बाद डिमेंशिया का डर खारिज कर दिया गया था। इससे न केवल माँ की सेहतमंदी की उम्मीद जगी, बल्कि वो वाकई सामान्य होने लगी। डॉक्टर ने केवल थायराइड की दवा की खुराक घटाई और पटना के न्यूरो डॉक्टर के नुस्खे पर लिखी 9 की 9 दवाइयों को बंद कर दिया। पापा के पास जल्दी ही माँ लौट आई, चंगी होकर। सबकी जान में जान लौट आई।

पापा माँ को मैडम पुकारने लगे थे और आप भी कहने लगे थे, यह कब से हुआ था और क्यों हुआ था, इसका जवाब दोनों में से किसी के पास नहीं था। लेकिन यह उतना मायने नहीं रखता, जितना इस कविता में व्यक्त पापा की व्याकुलता। वो सपने में कह रहे थे - मैं यथाशीघ्र आ रहा हूँ आपके पास। हुआ उल्टा। पापा पहले गए और हर रोज़ उनसे मिलने की तड़प में माँ ने तीन साल नौ महीने तीन दिन बिताए ... बहुत कष्ट था उसे। शारीरिक कष्ट से अधिक मानसिक कष्ट क्योंकि वो पूरी तरह बिस्तर पर आ गई थी और दूसरों पर निर्भर हो गई थी। परवशता और लाचारगी का अहसास उसके लिए मारक था। करवट दिलाने, उठने-बैठने, नहाने-खाने, खुजलाने-सहलाने सबके लिए उसे मदद की ज़रूरत पड़ने लगी थी। अंतिम समय में फोन तक खुद से नहीं लगा पाती थी। उसका पढ़ना छूटता जा रहा था जबकि महीने-दो महीने पहले तक आधी-आधी रात को उपन्यास पढ़ती रहती थी, घंटों टीवी देखती थी और खूब गपशप करती थी। कभी कभी सहायिका सामने अखबार का पन्ना खोलकर दिखाती तो वह लेटे लेटे खबरों की सुर्खियाँ पढ़ती। दूसरी आँख में मोतियाबिंद उतर आया था और उसका ऑपरेशन बाकी था। उसे इंतज़ार था कि जल्दी से आँख बेहतर हो ताकि वह पढ़ पाए। पापा के बाद उसका सहारा था पढ़ना, जो कि घटता जा रहा था।

माँ चाहने लगी थी जाना। सुजाता जी और लिली मौसी दोनों ने ठीक कहा कि एक तरह से इच्छामृत्यु है यह। लेकिन हम क्या करें ? माँ को और कष्ट में हम नहीं देखना चाहते थे, मगर उसकी अनुपस्थिति से कैसे निबटें ? 14 फ़रवरी की रात घर में माँ की अंतिम रात थी। उसके पास भैया-भाभी थे। मैं दूर दिल्ली में थी। 15 की देर रात भैया माँ को अस्पताल से घर ले आया। वहीं ड्राइंग रूम में उसका बिस्तर लगा, ज़मीन पर, जहाँ पापा लेटे थे। पापा की ही तरह माँ का चेहरा शांत था। उसकी बेचैनी, उसके दर्द की छाप चेहरे पर नहीं थी। सब कह रहे थे कि उसे मुक्ति मिल गई। हम भी मान रहे थे, मगर सच पूछो तो नहीं भी मान रहे थे ... 

वो बात रह रहकर कानों में गूँज रही है कि माँ कह रही थी कि इस बार पटना आओगी तो खाली हाथ जाओगी, मुझको नहीं पाओगी। मैंने उसे झिड़क दिया था कि फालतू बात मत करो। 15 की सुबह से वह निढाल थी, होशो हवास जैसे न हो। लगातार पटना बात हो रही थी, मगर माँ से नहीं, भैया से, भाभी से, सोनू से, मौसी से, डॉक्टर से... और मैं माने बैठी थी कि पिछले सितंबर-अक्टूबर की तरह वह bounce back करेगी। भैया ने जब बताया कि माँ critical है तब भी शायद मुझे समझ में नहीं आया। या समझकर भी नहीं समझा। अपराध बोध से भरी हुई हूँ - जब  अपूर्व कह रहे थे मुझे कि पटना जाओ तब मैं तत्काल क्यों नहीं गई। जाने के लिए खुद को तैयार भी कर रही थी, लेकिन निर्णय नहीं कर पा रही थी। शायद भाग रही थी ... अपने से, आसन्न घड़ी से। मन कह रहा था कि यह घड़ी टल जाएगी, अभी माँ के पास समय है। लेकिन उसने समय नहीं दिया। 

निर्मल जी (निर्मल चक्रवर्ती) को भी अंदाजा नहीं था इसका। वे माँ की हर छोटी-बड़ी बीमारी जानते थे। उसकी असहायता समझते थे, इसलिए कभी खीझे नहीं। माँ की छोटी सी छोटी तकलीफ के लिए हम उनको कलकत्ता में परेशान करते रहते थे कि कोई दवा बता दीजिए। माँ भी उनको जब तब फोन करती रहती थी। उसे उम्मीद रहती थी कि निर्मल  जी की कोई न कोई दवा लग जाएगी और उसे फौरी ही सही, मगर राहत मिलेगी। मिलती भी थी और माँ उन दवाओं का नाम, उनकी खुराक याद करती रहती थी। इन दिनों माँ होमियोपैथी की किताब (जो कि नानाजी की थी और माँ-पापा दोनों के लिए धर्मग्रंथ का दर्जा रखती थी) पलट कर खुद से नहीं देख पाती थी। नहीं तो निर्मल जी से चर्चा भी करती थी कि फलाना दवा तो अतिसार में चलती है क्या खुजली के लिए कारगर है या 200 पोटेंसी तो रामबाण है, मगर कॉस्टिकम 30 घर में है तो काम चलेगा या नहीं। होमियोपैथी दवा का भंडार है माँ के पास। भैया, अब उन दवाओं के लिए कोई सुपात्र खोज रहा है। 

उस दिन माँ की टकटकी लगी थी पापा की फोटो की तरफ। तब सुनीता (भाभी) ने फोटो उतार कर उसके हाथ में दे दी। माँ ने निहारा और मानो पापा से इजाज़त लेकर उसने आँखें मूँद लीं। शायद दोपहर-तिपहर की बात है। उसके बाद से ही उसने नज़र नहीं उठाई। साँस चल रही थी, पर उसे जाना था। लय टूटी तकरीबन सवा ग्यारह बजे रात को, लगभग पापा की तरह ही उसके जाने की प्रक्रिया थी। याद आया कि पापा ने अपने जानेवाले दिन अस्पताल में माँ को देखा था और एक तरह से जाने की अनुमति लेकर गए थे। व्हील चेयर पर बैठी माँ की की तरफ उन्होंने हाथ बढ़ाया था , मगर कोविड के इन्फेक्शन की आशंका से मैंने रोक दिया था। नर्स की निगरानी भरी आँखें और अपने मन का चोर क्योंकि दिल्ली से आने के कारण मेरे हाथ में कोरोंटाइन होने का ठप्पा लगा था जो कुर्ते की बाजू में छिपा था। हालाँकि न पापा को कोविड था, न हमें, मगर उसके खौफ़ ने वह अनमोल क्षण हमसे छीन लिया। माँ पापा का उठा हुआ हाथ भूल नहीं पाई। उसने मुझे दोष नहीं दिया, पर मैं आज तक अपने को कोसती हूँ। पापा को चार दिन वेंटिलेटर लगा था और माँ को भी अंतिम चार घंटे में वेंटिलेटर लगाना पड़ा था। दोनों के शरीर के अंग एक एक करके विदा लेते गए लगभग एक ही तरीके से। 

हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि लंबे समय तक प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यू प्रेशर, फिजियोथेरेपी वगैरह और आजीवन होमियोपैथी व संयमित खान-पान के कारण अपने vitals के सही सलामत रहने का दावा करने और गुमान करनेवाले माँ-पापा दोनों आखिर में गए multiple organ failure से। लाचारीवश एलोपैथी इलाज भी भरपूर हुआ और अंतिम दिनों में दवा फाँकना उनकी मजबूरी हो गई थी। एक तरह से मानसिक शांति मिलती थी यदि कोई दवा खिला दी जाए तो। अगले चंद घंटे इस इंतज़ार में कटते थे कि दवा असर करेगी। सुबह दोपहर शाम यह सिलसिला चलता रहता था। माँ-पापा दोनों डॉक्टर तो डॉक्टर, मुझसे भी ऐसे दवा के बारे में पूछते थे मानो मैं ही उनका नुस्खा लिखती हूँ। धीरे-धीरे हमें सोडियम घटने पर नमक भरा कैप्सूल देना , घरघराहट होने पर नेबुलाइज़र लगाना -जैसे काम का प्रशिक्षण मिल गया था। इमरजेंसी को टालने के लिए यह पर्याप्त था। लेकिन इस बार इमरजेंसी नहीं टली। 

लावण्य (भतीजा) बेचैन रहता है कि इस जीवन के आगे क्या है, उसके मामा-बाबा कहाँ हैं, क्या कर रहे होंगे। इस बार वह माँ को विदा करने बंबई से आया। पापा के समय तो उनके पास ही था। लॉकडाउन के चलते कचनार (बेटी) पिछली बार नहीं आ पाई थी और न ही अपूर्व आ पाए थे। इस बार विदाई के समय सब पहुँच गए थे। माँ को जाना था गुलबीघाट जहाँ से पापा विदा हुए थे। तरुण जी, योगेश, मीरा, गौरी सबने माँ की इच्छा को दोहराया। माँ वहीं गई। नहीं, उसे ले जाया गया। रास्ता थोड़ा अलग था। गुलबीघाट की अपनी लखनचंद कोठी (किराये का हमारा घर) वाले रास्ते से नहीं, अपने पुराने रानीघाट वाले रास्ते से हम सब गए। उधर जिधर से कभी माँ दूध लाने जाती थी या थायराइड और ब्लड प्रेशर की बीमारी के लिए डॉक्टर अरुण तिवारी को दिखाने जाती थी। पैदल ही जाती थी। बहुत बाद में जाकर रिक्शे से जाने लगी थी। एकाध बार भैया माँ को संभवतः गाड़ी से घुमाने ले गया होगा। मुझे याद है कि वह माँ को कभी कभार डॉक्टर के यहाँ से लौटते समय गाड़ी से चक्कर लगवा देता था - गर्दनीबाग का, रानीघाट का। घूमने की शौकीन माँ निहाल हो जाया करती थी। 

और अभी माँ-पापा के साथ ही मुझे याद आ रहे हैं श्याप कश्यप अंकल भी जिन्होंने ज़िद करके पापा का यह काव्य संकलन तैयार किया था। वो चले गए, गीता आंटी चली गईं। काश अपनी बारी भी जल्दी आए... पापा की तरह माँ से कहना चाहती हूँ - मैं यथाशीघ्र आ रही हूँ तुम्हारे पास।


सोमवार, 1 जनवरी 2024

आख़िरी बूँद तक ज़िंदगी (Mahmoud Darwish translated into Hindi)

अगर कोई मुझसे फिर कहे: “मान लो कि तुम कल मरनेवाले हो तो तुम क्या-क्या करोगे?” जवाब देने के लिए मुझे एकदम वक्त नहीं चाहिए होगा। अगर मैं उनींदा महसूस कर रहा होऊँ, मैं सो जाऊँगा। अगर मैं प्यासा होता, मैं पानी पीऊँगा। अगर मैं लिख रहा होता, तो जो लिख रहा होता उसे पसंद करता और सवाल को नज़रअंदाज़ कर देता। अगर मैं ख़ाना खा रहा होता तो मैं ग्रिल्ड मीट की स्लाइस पर थोड़ी सरसों और गोलमिर्च मिलाता। अगर मैं दाढ़ी बना रहा होता, हो सकता है मैं अपने कान की लौ काट लेता। अगर मैं अपनी महबूबा को चूम रहा होता, मैं उसके होठों को खा जाता मानो वे अंजीर हों। अगर मैं पढ़ रहा होता, मैं कुछ पृष्ठ छोड़ देता। अगर मैं प्याज़ छील रहा होता, मैं कुछ आँसू गिराता। अगर मैं चल रहा होता, मैं चलता ही रहता कुछ मंद चाल से। अगर मैं ज़िंदा होता, जैसा मैं अभी हूँ, तो मैं ज़िंदा न होने के बारे में कुछ न सोचता। अगर मैं न होता, तो सवाल मुझे परेशान ही न करता। अगर मैं मोत्ज़ार्ट को सुन रहा होता तो मैं फ़रिश्तों की दुनिया के आसपास होता। अगर मैं सो रहा होता, तो मैं सोता रहता और चैन से गार्डेनिया के सपने देखता रहता। अगर मैं हँस रहा होता, तो मैंने अपनी हँसी बीच में रोक दी होती इस सूचना के लिए सम्मान के चलते। और मैं कर भी क्या सकता था, अगर मैं बहादुर ही होता एक अहमक से अधिक और ताकतवर होता हरक्यूलियस से ज़्यादा?




फ़िलिस्तीनी कवि

अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद : कैथरीन कॉबम

हिंदी अनुवाद: अपूर्वानंद

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023

रविवार, 31 दिसंबर 2023

आख़िरी ट्रेन रुक गई है (Mahmoud Darwish translated into Hindi)


आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर रुक गई है। वहाँ कोई नहीं है

गुलाबों को बचाने के लिए, कोई कबूतर नहीं शब्दों से तामीर की गई औरत पर उतरने के लिए।

वक्त ख़त्म हो चुका है। गाना बेहतर नहीं है झाग के मुक़ाबले।

हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे। भीड़ में किसी का भी इंतज़ार मत करो।

आख़िरी ट्रेन रुक गई है आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर। लेकिन कोई भी

नारसीसस की छाया नहीं डाल सकता वापस रात के आईनों में।

मैं कहाँ लिख सकता हूँ देह के अवतार का अपना सबसे ताज़ा वृत्तांत?

यह अंत है उसका जिसका अंत होना ही था। वह कहाँ है जिसका अंत होता है?

मैं कहाँ ख़ुद को अपनी देह में अपने वतन से आज़ाद कर सकता हूँ?

हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे! आख़िरी कबूतर उड़ गया है।

आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफार्म पर रुक गई है। और वहाँ कोई नहीं था।




फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान

अरबी से अंग्रेज़ी: मुनुर अकाश और कैरोलिन फ़ॉश

हिंदी में : अपूर्वानंद

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023











शनिवार, 30 दिसंबर 2023

रूमाल (Ghassan Zaqtan translated into Hindi)


हमारे बीच कहने को कुछ न बचा

सब उस ट्रेन में चला गया जिसने अपनी सीटी

उस धुएँ में छुपा ली जो बादल न बन सका

उस चले जाने में जिसने तुम्हारे हाथ पाँव बटोरा किए

कुछ भी नहीं बचा कहने को हमारे बीच

इसलिए रहने देते हैं तुम्हारी मौत को

चमकती चाँदी की गहरी कौंध

और रहने देते हैं उन शहरों के सूरज को

तुम्हारे कंधों पर रखे गुलाब

के अक्स में।




फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान

अरबी से अंग्रेज़ी: फ़ादी जूदा

हिंदी में : निधीश त्यागी

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023




गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

कविता का काम आँसू पोंछना नहीं है ('It is not poetry’s job to wipe away tears by Zakaria Mohammed Translated into Hindi)



वह रो रहा था, इसलिए उसे सँभालने के लिए मैंने उसका हाथ थामा और आँसू पोंछने के लिए

मैंने उसे कहा जब दुख से मेरा गला रुँध रहा था: मैं तुमसे वादा करता हूँ कि इंसाफ़

जीतेगा आख़िरकार, और अमन जल्दी ही क़ायम होगा।

ज़ाहिर है मैं उससे झूठ बोल रहा था। मुझे पता था कि इंसाफ़ नहीं मिलने वाला

और अमन जल्द नहीं आने वाला, पर मुझे उसके आँसू रोकने थे।

मेरी यह समझ ग़लत थी कि अगर हम किसी चमत्कार से

आँसुओं की नदी को रोक लें, तो सब कुछ ठीक ठाक तरह से चल निकलेगा।

फिर चीज़ों को हम वैसे ही मान लेंगे जैसी वे हैं। क्रूरता और इंसाफ़ एक साथ मैदान में

घास चरेंगे, ईश्वर शैतान का भाई निकलेगा, और शिकार हत्यारे का प्रेमी होगा।

पर आँसू रोकने का कोई तरीक़ा नहीं है। वे बाढ़ की तरह लगातार बहे जाते हैं और अमन की

रवायतों को तबाह कर देते हैं।

और इसलिए, आँसुओं की इस कसैली ज़िद की ख़ातिर, आइए, आँखों का अभिषेक करें

इस धरती के सबसे पवित्र संत के रूप में।

कविता का काम नहीं है आँसू पोंछना।

कविता को खाई खोदनी चाहिए जिसका बाँध वे तोड़ दें और इस ब्रह्मांड को डुबा दें।




फ़िलिस्तीनी कवि : ज़करिया मोहम्मद

अरबी से अंग्रेज़ी : लीना तुफ़्फ़ाहा

हिंदी अनुवाद : निधीश त्यागी और अपूर्वानंद

संकलन : कविता काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द प्रकाशन, दिल्ली, 2023

भजन (Mahmoud Darwish translated into Hindi)


जिस दिन मेरी कविताएँ मिट्टी से बनी थीं  

मैं अनाज का दोस्त था।


जब मेरी कविताएँ शहद हो गईं 

मक्खियाँ बस गईं 

मेरे होठों पर।



 

फ़िलिस्तीनी कवि : महमूद दरवेश

अरबी से अंग्रेज़ी:  अब्दुल्लाह अल-उज़री 

हिंदी अनुवाद  :  अशोक वाजपेयी

संकलन : 'कविता का काम आँसू पोंछना नहीं' में मूल मॉडर्न पोइट्री ऑफ़ द अरब वर्ल्ड, पेंगुइन बुक्स, 1986 से

प्रकाशन - जिल्द बुक्स, 2023