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शनिवार, 30 जून 2012

मशरूम वल्द कुकुरमुत्ता (Mashroom wald kukurmutta by Gyanendrapati)


एक दिन 
बाजार से मेरे घर आता है
एक उच्च-भ्रू दुकान में के आदमकद फ्रिज में से निकल
पारदर्शी पोलिथिन पैकेट में बन्द
वह गौरांग

झोली उँडेलती हुई
पत्नी फरमाती हैं :
सवाद बदलने के लिए 
आज यह मशरूम

मैं देखता हूँ उसे 
और अचरज से चिहा उठता हूँ :
वाह ! बड़े दिनों बाद हुई भेंट 
कैसे हो भाई कुकुरमुत्ते ?
महाकवि के दुलारे, देते रहे बुत्ते
खाने से पहले तुम्हें देखूँ तो भरपेट !

कि मेरे भीतरी कानों में गूँजी एक डपट
छोड़ती लपट :
अशिष्ट !
देख ध्यान से अरे, मैं विशिष्ट
मैं नहीं वह, खुले में, सड़े पुआल पर उगा कुकुरमुत्ता 
कि ले जाए वह भी जिसके पाँव में नहीं जुत्ता
अरे, मैं तो वातानुकूलित कक्ष का वासी 
बारहमासी 
प्रोलेतेरियत नहीं, बूर्ज्वा
सर नवा
मैं खादखोर मशरूम
क्या जाने मुझे, तू हाड़तोड़ मजलूम
गरीबी से गर्वित
निवुध अपने चित्त को लिये चित्त !

दहलाती वाणी से नहलाए कानों में सहलाती उँगली दे
तब मैंने देखा ध्यान से
उस नवयुगी कुकुरमुत्ते को
कोमलांग हुरमुट्ठे को
बेशक, यह नहीं वह गँवई-गँवार
बचपन का यार
स्वयंभू सर्वहारा
बनाते जिसे गदा निराला
करने को ध्वस्त कुल और कूल बूर्ज्वाजी के 
गुलाब के बहाने परोपजीवी मूल्य बूर्ज्वाजी के

यह नहीं वह मुँहफट महामना
यह जो इतराता आज गुलाब का गोतिया बना
कुकुरमुत्ता नहीं, मशरूम
मुरव्वत से महरूम
सबाल्टर्न नहीं, अल्ट्रामाडर्न 
पंचतारा होटलों का डिश
फ्लाइंग किस
वायुयानों में भर विदेशगामी
अभिमानी
वर्गारोही स्वर्गारोही 
आधुनिक नव्वाबों का लाड़ला
गरीब के दुआरे आते लाज-गड़ा
अब कहाँ मयस्सर गोली और मोना बंगाली को
मालिन को और माली को
इसका कलिया-कबाब
उनका ख्वाब
खाते बस बहार और नव्वाब
एअरकंडीशंड जिन्दगी है
बड़े-बड़ों से बंदगी है
बाकी तो गरीबी है गन्दगी है

मैंने देखा उसे
जमीन से उठकर जिसका दिमाग सातवें आसमान चढ़ा
अमीरों का मुँहलगा
कहा पत्नी को :
सुनो, जल्द पकाओ इसे
नहीं तो जाऊँगा कच्चा चबा !

                                     कवि - ज्ञानेन्द्रपति 
                                     संग्रह - संशयात्मा 
                                     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004 

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