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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

कवि की पूर्णिमा (Kavi Ki Purnima by U. R. Ananthamurthy)



पूरे दिनों से बैठी भाभी की तेजस्वी दृष्टि हाथ में बुनाई के साथ कोई सपना देख रही थी. भय्या की नज़र खिड़की के बाहर कहीं शून्य में कुछ टटोल रही थी. कमरे के भीतर अनंत प्रकाश फैला था. भाभी के बालों से हवा के झोंकों में तैरकर आने वाली मल्लिका की सुगंध. खिड़की से बाहर फैले आकाश की अपार शुभ्र नीलिमा.
   भरा-पूरा जीवन...छलकता प्रकाश...तीखी सुगंध, डोलता सपना...गगन की अनंतता - बीच में मृत्यु. सब की अनित्यता की घोषणा करने वाली मृत्यु.
   आनंद ह्रदय की पीड़ा से तड़प रहा था. गुलाबी धूप में घूँ-घूँ करता आने वाला एक भँवरा बिस्तर के पास आकर सौन्दर्य के सन्देश से उसे दुखी कर रहा था. अनन्तता के बीच यह मृत्यु...मिट्टी ! मिट्टी !  अन्त में सब-कुछ मुट्ठी-भर मिट्टी !
   खाँसी से जैसे दिल फट-सा गया. उसने अपने को संभालकर चारों ओर घबरा कर देखा. ताज़ा धूप की किरणें भाभी की आँखों और नाक की लौंग पर छिटक रही थीं.
   सुख-सपना उसकी आँखों से खिसक गया. हाथ की बुनाई यंत्रवत रुक गयी, कुछ भूलने के लिए भाई कमरा छोड़कर बाहर चला गया. भाभी की दृष्टि व्यथित थी.
   यह पच्चीस वर्ष का भरा-पूरा जीवन मृत्यु का ग्रास बनेगा.
   गर्भ में जीवन का पिंड और इधर मृत्यु. सोचते-सोचते भाभी की आँखों में दर्द समा गया.
   अपनी स्थिति से उस छोटे-से परिवार को घेरे दुख को भुलाने के प्रयास में आनंद मुसकराया. उसकी आँखों में जब हँसी चमकी, तब कसे होठों वाली मृत्यु भी ठिठकी. कैसा समय !
   "भाभी, बच्चे का नाम क्या रखोगी ?"
   बच्चे की बात याद आते ही भाभी का कली जैसा मुँह खिल उठा.
   "तुम्हारा नाम. लड़का हुआ तो आनंद, लडकी हुई तो आनंदी."
   यह कह कर वह शरारती हँसी हँस पड़ी. आनंद ने आँखें बंद करके अप्रिय विचारों को भूलने का प्रयास किया.
   "वह पूर्ण आयु पाये. मेरे नाम पर उसका नाम क्यों ?"
भाभी के दिल को बात लग गयी. जीवन-पिंड को अपने गर्भ में बुनने वाली माँ को, आनंद की मृत्यु समीप है, यह सोचना भी असाध्य लगता है. मरने वाले क्या सदा के लिए इस लोक से अलग हो जायेंगे ? इस जीवन में इतना प्रेम भरा है तो ऐसा कैसे संभव होगा ? कितना प्रकाश भरा है इस लोक में ? नहीं, आनंद नहीं जायेगा. अगर चला भी गया तो वापस आ जायेगा ; ज़रूर आयेगा. 


                    कथाकार - यू. आर. अनंतमूर्ति 
                    संकलन - घटश्राद्ध  
                    कन्नड़ से हिन्दी अनुवाद - वी. आर. नारायण 
                    प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1984

(याद करते हुए...एक और आनंद ...)

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