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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

कवि का स्कूल (Kavi ka school by Rabindranath Tagore)



मुझसे जो सवालात अकसर पूछे जाते हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जनसमुदाय मुझसे, एक कवि से स्कूल खोलने का दु:साहस करने की वजह पूछता है. मैं इसे स्वीकार करता हूं कि रेशम का कीड़ा जो रेशम बुनता है और तितली जो यों ही उड़ती फिरती है, ये दोनों एक दूसरे के विपरीत अस्तित्व के दो प्रकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं. लगता है, प्रकृति के लेखाविभाग में रेशम का कीड़ा जितना उत्पादन करता है, उसके हिसाब से उसके काम का नकदी मूल्य नोट होता रहता है. लेकिन तितली गैरजिम्मेदार प्राणी है. इसका जो भी महत्त्व है, वह इसके नाते दो हलके पंखों के साथ उड़ता रहता है, उसमें न कोई भार है, न ही कोई मूल्य. संभवतः यह सूर्य की रोशनी में छिपे रंगों के कुबेर को खुश करती रहती है, जिनका लेखाविभाग से कोई लेना देना नहीं और जो लुटाने की महान कला में पूरी तरह माहिर है.
कवि की तुलना उसी बुद्धू तितली से की जा सकती है. वह भी सृष्टि के सभी उत्सवी रंगों को अपने छंदों की धड़कन में उतार देना चाहता है. तब वह कर्तव्यों की अनंत श्रृंखला में अपने आपको क्यों बांधे ? क्यों उससे कुछ अच्छे, ठोस और दर्शनीय परिणाम की आशा की जाए ? अपने बारे में निर्णय करने का अधिकार वह उन बुद्धिमान लोगों को क्यों दे जो उसकी रचना का गुण होने वाले फायदे की मात्रा से समझने की कोशिश करें.
इस कवि का उत्तर होगा कि जाड़े की खिली धूप में कुछ विस्तृत शाखाओं वाले मजबूत, सीधे और लंबे साल वृक्षों की छाया में जब एक दिन मैं कुछ बच्चों को लेकर आया तो मैंने शब्द के अतिरिक्त एक और माध्यम से कविता लिखनी शुरू की.


रचनाकार - रवींद्रनाथ ठाकुर
किताब - रवींद्रनाथ का शिक्षादर्शन
अनुवादक - गोपाल प्रधान  
प्रकाशक - ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 1997

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