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सोमवार, 23 जुलाई 2012

पाषाण से संवाद (Paashaan se samvaad - Kanka Murthy)


कनका मूर्ति का जन्म मैसूर के निकट तिरुमाकूडलु नरसीपुर में हुआ था....इनका गांव सोमनाथपुर के होयसाल मंदिर के पास था. चूँकि यह प्राचीन मंदिर घर के पास था, अतः जब भी कोई उनके घर उनसे मिलने के लिए आता तो उसे मंदिर को ज़रूर दिखाया जाता था....बचपन में कनका वहाँ मूर्तियों से खेलती और सोचती थी कि हर समय संगीत का अभ्यास करने के स्थान पर वह मूर्तियां क्यों नहीं बनाती ?  
कनका की मां सुन्दरम्मा एक कलाकार थी. वह अच्छा गाती थी पर घरेलू ज़िम्मेदारियों की वजह से उन्हें गाने का अधिक समय नहीं मिलता....सुन्दरम्मा गांव की पहली महिला थी, जिन्होंने सिर्फ बेटों को ही नहीं बल्कि अपनी बेटियों को भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बंगलोर भेजा.   
विज्ञान की स्नातक होने के बाद कनका एक साल तक घर पर ही रही क्योंकि उनके परिवार ने उन्हें आगे पढ़ाने की ज़रुरत महसूस नहीं की. उनके विवाह के लिए प्रयत्न किए जाने लगे. कनका मुस्कुराते हुए कहती हैं, कि वह काली थी और एक काली लडकी के लिए वर मिलना बहुत मुश्किल था. उसका काला रंग उसके लिए वरदान साबित हुआ. कनका ने इस बीच रेखाचित्र बनाने का प्रयास किया और कुछ समय तक चित्र भी बनाए....
कलामंदिरम् में पढ़ते हुए ही कनका ने वादिराज के विषय में सुना था. वादिराज एक महान परंपरावादी मूर्तिकार थे....एक दिन वादिराज ने उनसे कहा कि चित्रकला उसके लिए उपयुक्त नहीं है. संभव है कि परंपरागत मूर्तिकला के लिए अनिवार्य रेखाचित्रांकन में निपुण होने के कारण मूर्तिकला उसके लिए अधिक उपयुक्त हो....कनका ने वादिराज से सीखना शुरू कर दिया....कनका के पिता...सोचते थे कि कनका पहले ही काली है और धूप में बैठकर मिट्टी और अन्य सामग्री से काम करने से वह और काली हो जाएगी. उन्हें इस बात का डर था कि  इससे उसकी शादी के आसार और कम हो जाएंगे. उसके पिता बैलगाड़ी से यात्रा करते थे. गाड़ी के लौटने की आवाज़ कनका दूर से ही सुन लेती और तुरंत काम के स्थान को साफ़ कर वहां से हट जाती...
कनका ने पहले प्लास्टर ऑफ पेरिस को ढालना सीखा और फिर...उन्होंने लकड़ी पर प्रशिक्षण लेना शुरू किया....धीरे-धीरे उन्होंने मूर्ति बनाने वाले पत्थरों से उसे परिचित कराया. इस पूरी प्रक्रिया में चार-पांच साल लग गए. कनका ने पत्थर के माध्यम को बहुत खूबसूरत और अपनी सर्जना के समीप पाया....कनका के लिए पत्थर का अर्थ कुछ और ही है. कनका कहती है कि छेनी के हरेक प्रहार के साथ पत्थर उनसे बात करता लगता है जैसे वह अपने भीतर छुपे आकार के विषय में मुझे कुछ बता रहा हो....
कनका अधिकांश काम मानवाकृति पर करना चाहती हैं....कनका ने तांबे...पर भी कार्य किया है. उनकी बनाई गणेश की एक मूर्ति बंगलोर के एक मंदिर में स्थापित की गई है....कनका जब स्त्री का चेहरा बनाती है तो वह बहुत कोमल नहीं होता. वह चेहरे पर शक्ति का भाव उत्पन्न करना चाहती है. वह अपनी स्त्री में बहुत स्त्रियोचित भाव नहीं लाना चाहती हैं. उनके अनुसार चेहरे पर विशेष गौरव के भाव होने चाहिए. वह यह कहते हुए हंसती है कि , "संभवतः मैं अपनी कुछ विशेषताओं को वहां ढालती हूं." 



मूल पाठ -सी.एस लक्ष्मी 
बातचीत - लेखिका शशि देशपांडे और चित्रकार भारती कपाडिया 
किताब - पंखों की उड़ान 
दृश्य श्रव्य कार्यशाला में सहभागी महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों पर आधारित श्रृंखला  
सम्पादन - सुधा अरोड़ा 
अनुवाद संयोजन - मालविका अहलावत, तुलसी वेणुगोपाल 
प्रकाशक - स्पैरो, मुंबई, 2003

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