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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

चंचला की करतूत (Chanchala ki kartoot by Harimohan Jha)



मुंशी नौरंगीलाल को शुरू से ही जासूसी का चसका लग गया. 'चंद्रकांता','भूतनाथ', 'दारोगा-दफ्तर' पढ़ते-पढ़ते उन्हें भी जासूस बनाने की सनक सवार हो गई. जब उन्होंने बी.ए. का तिलिस्म तोड़ा, तो संयोगवश नौकरी भी वैसी ही मिल गई, दारोगागिरी की....
दारोगाजी खुद तो तीस के ऊपर थे, मगर पत्नी थी षोडशी....बेहद शक्की थे. उनकी अनुपस्थिति में कोई महरी भी काम करने ऐ, यह उन्हें मंजूर न था....नववधू का नाम था चंचला. नामवाला गुण भी था....कुछ दिनों के लिए मुंशीजी की बहन सरयू आ गई. तब चंचला के जी में जी आया. ननद के साथ हँसती-बोलती और उसके बच्चे के साथ खेलती....पर आँगन में ऐसी रंगरेलियाँ दारोगाजी को गवारा नहीं हुईं. दस ही दिनों में उन्होंने अपनी बहन को विदा कर दिया.
अब फिर वही सुनसान, भूत का डेरा !...एक रात चंचला ने कहा, "यूँ जी नहीं लगता, बहनजी को फिर बुला लीजिए." 
दारोगाजी बोले, "हूँ !"
चंचला ने कहा, "आप नहीं बुलाइएगा तो मैं ही लिखे देती हूँ,"
दारोगाजी फिर बोले, "हूँ !"
चंचला की ज़िद देखकर दारोगाजी सशंकित हो उठे....न जाने, इसके पीछे क्या राज़ छिपा है !
एक रात चंचला बोली, "आपकी मूँछें बहुत बड़ी कड़ी हैं, कटा क्यों नहीं लेते ?"
दारोगाजी ने मूँछ पर ताव देते हुए कहा, 'यही मूँछ तो नौरंगीलाल की शान है ! यह तो उसी दिन कटेगी, जिस दिन नौरंगीलाल की जासूसी फेलकर जाएगी."
चंचला करवट बदलकर सो गई. मगर नौरंगीलाल को फिर शक हो गया. चंचला को ऐसी इच्छा हुई क्यों ?
दारोगाजी उस दिन से अधिक सावधान रहने लगे....और एक दिन सचमुच उनकी जासूसी कामयाब हो गई....अपने घर के पिछवाड़े...एक मोड़े हुए कागज़ पर उनकी नज़र पड़ी....
वह एक लम्बी-सी पुर्जी थी. चंचला की लिखावट थी...
                           परम प्रिय
             सप्रेम आलिंगन और
                   बारंबार चुंबन l
                मैं तुम्हारे आने की 
                     राह देखती हूँ l
              12 बजे रात के बाद
               तुम ज़रूर आ जाओ
               मैं बेचैन हो रही हूँ l
  अजीब नशा सवार रहता है l
          बदहवासी की हालत में 
                  रहती हूँ l जो बन
                 पर तुम्हारा हक़ है,
           मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी l
               मैं तुम्हें अपने ह्रदय
                  में लगाने के लिए
                     कल से छटपटा
        रही हूँ l तुमसे मिलने को
               छाती धड़क रही है
   मैं लाज खोलकर लिखती हूँ
      तुम आकर प्राण बचाओ l
               मैं खिड़की पर बैठी
 मिलूँगी l विशेष भेंट होने पर
                      तुम्हारी प्यारी
                                चंचला
                                  14-3
दारोगाजी ने तुरत वह चिट्ठी चंचला के सामने फेंक दी और रौब के साथ मूँछों पर ताव फेरने लगे. जैसे कोई किला फतह कर लिया हो.
चंचला देवी एकाएक खिलखिला उठी. बोली, "यह चिट्ठी आपको कहाँ मिली ?"
दारोगा, "पिछवाड़े की नाली में."
चंचला बोली, "यह चिट्ठी तो मैंने ननदजी को भेजने के लिए लिखी थी. बाद में मैंने इसे फाड़कर फेंक दिया. वहीं देखी, शायद उसका दूसरा टुकड़ा मिल जाए."
जासूस साहब फिर टार्च लेकर ढूँढ़ने गए. वहाँ एक और वैसी ही पुर्जी मिली. चंचला ने दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया और दारोगाजी पढ़ने लगे-
                        परम प्रिय           ननद जी,
           सप्रेम आलिंगन और          चिरंजीवी मुन्ना को
                 बारंबार चुंबन l          तुम कब आओगी ?
             मैं  तुम्हारे आने की          हर दिन हर घड़ी 
                   राह देखती हूँ l         तुम्हारे भैया आजकल 
            12 बजे रात के बाद         घर लौटते हैं 
            तुम ज़रूर आ जाओ         तुम सब समझ जाओगी l
             मैं बेचैन हो रही हूँ l        तुम्हारे भैया की अक्ल मारी गई है 
अजीब नशा सवार रहता है l        रात-दिन शक के फेर में पड़कर 
      बदहवासी की हालत में          रहते हैं l  मैं भी उदास 
              रहती हूँ l जो बन           पड़े सो उपाय तुम्हें करना है 
       पर तुम्हारा पूरा हक़ है,         कि इस काम के लिए फीस लो 
         मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी l         पर तुम जल्दी आओ भी तो !
             मैं तुम्हें अपने ह्रदय         की व्यथा कैसे समझाऊँ ? लिफाफे 
                में लगाने के लिए         टिकट नहीं था l इसलिए 
                   कल से छटपटा         रही थी l आज चिट्ठी लिख 
     रही हूँ l तुमसे मिलने को         व्याकुल हूँ l डर के मारे 
             छाती धड़क रही है         और कहूँ भी तो किससे ? 
 मैं लाज खोलकर लिखती हूँ          उन्हें मुझी पर संदेह है 
     तुम आकर प्राण बचाओ l         हर ट्रेन के वक्त 
             मैं खिड़की पर बैठी          रहती हूँ l जभी आओगी, तभी 
मिलूँगी l विशेष भेंट होने पर
                    तुम्हारी प्यारी         भाभी 
                              चंचला          देवी 
                               14 - 3         - 64
दारोगाजी...दबी ज़बान में बोले, "तो अब क्या होना चाहिए ?"
चंचला देवी...फुर्ती से उठी और दारोगा साहब की दराज से दाढ़ी बनाने का समान ले आई और तब साबुन के फेन में कूँची भिंगोकर धीरे-धीरे दारोगाजी की मूँछों पर रगड़ने लगी. फिर चुपचाप उस्तरा चलाने लग गई.



देखते-देखते दारोगाजी की मूँछ साफ़ हो गई.      


लेखक - हरिमोहन झा
संग्रह - रेल की बात
प्रकाशक - अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद
पहला पॉकेट बुक संस्करण - 1963
दूसरा पेपरबैक संस्करण - 2011

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