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बुधवार, 5 सितंबर 2012

लीडर का निर्माता (Leader ka nirmata by Shakunt Mathur)


सजा है
रेशम के पर्दों से ड्राइंग रूम
सोडे से, फिनील से,
और गरम पानी से
धुल रहे बाथरूम l 

टावेल रूँए का हाथ में
लाण्ड्री-धुला, गोरा -  
कोठी से निकल रहा बैरा l

चपरासी कसे बेल्ट,
सेक्रेटरी लिये डायरी,
गेट पर कार खड़ी,
लोगों को इन्तज़ार -
         कौन आ रहा ?
         लीडर आ रहा !

कौन है जा रहा ?
सड़ी है गली टपरे-सी
टपरा सड़ा है घूरे-सा,
बम्बा है पानी का 
घर से बहुत दूर ;
टूटे घड़े हाथ में 
काई चढ़े l  

निकल रही छिपकली-सी
लड़की दरवाज़े-से ;
गली का पिल्ला बन
फिर रहा बच्चा
लिये खाली बोतल
मट्टी के तेल (किरासिन) की l 

कूड़े से भरी गाड़ी
खड़ी है गली के बीच
भंगी का इन्तज़ार
गन्दगी का संसार l

जिस में है बोल रहा
मौत के सिगनल-सा
भोंपू दूर मील का l
भूखा ही
        कौन है जा रहा ?
       लीडर का निर्माता !


कवयित्री - शकुन्त माथुर 
संकलन - दूसरा सप्तक
संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पहला संस्करण - 1949
किताब में दिए गए अपने वक्तव्य में शकुन्त माथुर कहती हैं, " नारी का सुख केवल उस की घर-गृहस्थी तक ही सीमित है, यह मैं नहीं मानती. गृहस्थी के साज-सँवार के बाद भी वह पूरा संतोष नहीं कर पाती, उसे लगता है जैसे वह अपूर्ण है. उस की सांसारिक और व्यावहारिक सुख-साधना की पूर्ति होने पर भी वह एक सामाजिक अभाव महसूस करती है और वह है मानसिक विकास का. घर में रह कर वह अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ति करती है, किन्तु फिर भी मानसिक क्षेत्र में पैर फैलाने का अवसर उसे घर की चारदीवारी में प्राप्त नहीं होता. इसी लिए सब प्रकार का सुख होते हुए भी इस अभाव की पूर्ति मुझे काव्य में मिली....मैंने जब भी कुछ लिखा, उसे मन की एक मौज समझ कर छोड़ दिया और मेरे पति ने भी उसे सदा हँसी में टाल दिया. इस के अतिरिक्त जब भी मैं कविता लिखती, इन की कोई न कोई रचना सामने आ कर खड़ी हो जाती और मेरी कविता शर्मिन्दा हो जाती. अभी कुछ समय पूर्व इन  के प्रतिष्ठित साहित्यिक मित्रों ने मेरी रचनाएँ देखीं और उन्हें प्रकाश में लाने को बाध्य किया. इस कारण इन रचनाओं को कविता कहने का श्रेय हम दोनों का नहीं, मित्रों का है." 

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