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सोमवार, 17 सितंबर 2012

मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत (Moordhanya sha ke liye ek vida-geet by Gyanendrapati)



बेचारा मूर्धन्य ष 
जो ऋषि-महर्षि में ही बचा हुआ है
और राष्ट्र में षड्यन्त्र में और षट्कोण में
और ऐसी ही दो-चार अजीबोगरीब जगहों में 
बेचारा मूर्धन्य ष
जिसकी आकृति-भर बची है 
एक तपस्वी आकृति
लिपि में
लिखित भाषा में

बेचारा मूर्धन्य ष
जिह्वा से जो गिर गया रास्ते में
बोली से बिछड़ गया
टोली से फिसल गया
डूब गया अँधेरे में
लिपि की झाड़ी में फँसा टिमटिमाता
डूब जाने दो
टूटा तारा है एक
दुख न करो
डूब जाने दो
ध्वनि के पीछे उसकी आकृति
डूब जाने दो
भाषा के अतल में
भाषा के जल में 
विस्मरण नहीं
अनन्त आकृतियों की स्मृति 


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004


मुझे विदा नहीं करना है, फिर भी...

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