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शनिवार, 15 दिसंबर 2012

डोर (Dor by Arun Kamal)


मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ
हाथ पर हाथ धर
मुझे तो हर दिन नाखून से
खोदनी है नहर
और खींच कर लानी है पानी की डोर
धुर ओठ तक

जितना पानी नहीं कंठ में
उससे अधिक तो पसीना बहा
दसों नाखूनों में धँसी है मट्टी
खून से छलछल ऊँगलियाँ
दूर चमकती है नदी
एक नदी बहुत दूर जैसे
थर्मामीटर में पारे की डोर l


कवि - अरुण कमल
संकलन - पुतली में संसार
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

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