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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)



हम्द-ओ-नात के बाद वाज़ह हो कि हर चंद इस मुल्क में मस्तूरात के पढ़ाने-लिखाने का रिवाज नहीं, मगर फिर भी बड़े शहरों में ख़ास-ख़ास शरीफ़ खानदानों की बाज़ औरतें क़ुरान मजीद का तर्जुमा, मज़हबी मसायल और नसायाह के उर्दू रिसाले पढ़-पढ़ा लिया करती हैं. मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ कि मैं भी देहली के एक ऐसे ही ख़ानदान का आदमी हूँ. ख़ानदान के दस्तूर के मुताबिक़ मेरी लड़कियों ने भी ‘क़ुरान शरीफ़’, उसके मानी और उर्दू के छोटे-छोटे रिसाले घर की बड़ी-बूढ़ियों से पढ़े. घर में रात-दिन पढ़ने-लिखने का चरचा तो रहता ही था. मैं देखता था कि हम मर्दों की देखा-देखी लड़कियों को भी इल्म की तरफ़ एक तरह की ख़ास रग़बत है. लेकिन इसके साथ ही मुझको यह भी मालूम होता था कि निरे मज़हबी ख़यालात बच्चों की हालत के मुनासिब नहीं. और जो मज़ामीन उनके पेशे-नज़र रहते हैं उनसे उनके दिल अफ़सुर्दा, उनकी तबीयतें मुन्कबिज़ और उनके ज़हन कुंद होते हैं. तब मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इख़लाक़ ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की ज़िंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोहमात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाये-रंज ओ मुसीबत रहा करती हैं, उनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करे और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनका दिल न उकताए, तबीयत न घबराये. मगर तमाम किताबखाना छान मारा ऐसी किताब का पता न मिला, पर न मिला. तब मैंने इस क़िस्से का मंसूबा बाँधा.


लेखक - नज़ीर अहमद  
किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958

1869 में अपने छोटे-से नाविल 'मिरातुल-उरूस' की भूमिका (दीबाचा) में लिखी गई डिप्टी नज़ीर अहमद  की यह बात मार्के की है।  लड़कियों व स्त्रियों की शिक्षा में पुरुषों की पहलकदमी और उनके योगदान को बिना कम करके आँके हुए इस एक उद्धरण से स्त्री शिक्षा के लक्ष्य और उसमें घरेलू शिक्षा और धार्मिक शिक्षा की भूमिका को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.

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