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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

हम लड़ेंगे साथी (Hum ladeinge sathee by Pash)

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल की लीकें अब भी बनती हैं, चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता, सवाल नाचता है
सवाल के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए जज्बात की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़ी गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक
कि बीरू बकरिहा जब तक
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूलों को
बीजने वाले जब तक ख़ुद नहीं सूँघते

कि सूजी आँखोंवाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
जंग से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने ही भाइयों का गला दबाने के लिए विवश हैं
कि बाबू दफ़्तरों के
जब तक रक्त से अक्षर लिखते हैं ...
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाकी है ...

जब बंदूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी ...

हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अभी तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों
की याद ज़िंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी ...


कवि - पाश 
किताब - सम्पूर्ण कविताएँ : पाश 
संपादन और अनुवाद - चमनलाल 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, 2002

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