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गुरुवार, 3 जनवरी 2013

वाणी की दीनता (Vani ki deenata by Bhawaniprasad Mishra)


वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l
कहने में अर्थ नहीं 
कहना पर व्यर्थ नहीं 
मिलती है कहने में 
एक तल्लीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

आस-पास भूलता हूँ 
जग भर में झूलता हूँ ;
सिन्धु के किनारे, कंकर 
जैसे शिशु बीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

कंकर निराले नीले 
लाल सतरंगी पीले 
शिशु की सजावट अपनी,
शिशु की प्रवीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

भीतर की आहट भर 
सजती है सजावट पर 
नित्य नया कंकर क्रम,
क्रम की नवीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

वाणी को बुनने में ;
कंकर के चुनने में 
कोई उत्कर्ष नहीं 
कोई नहीं हीनता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

केवल स्वभाव है 
चुनने का चाव है 
जीने की क्षमता है 
मरने की क्षीणता l
वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता l

कवि - भवानीप्रसाद मिश्र 
संकलन - दूसरा सप्तक 
संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, दूसरा पेपरबैक संस्करण - 2002


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