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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

वासन्ती (Vaasanti by Nirala)

अति ही मृदु गति ऋतुपति की
प्रिय डालों पर, प्रिय, आओ,
पिक के पावन पंचम में
गाओ, वन्दन-ध्वनि गाओ !

प्रिय, नील-गगन-सागर तिर,
चिर, काट तिमिर के बन्धन,
उतरो जग में, उतरो फिर,
भर दो, पग-पग नव स्पन्दन !

सिहरे द्रुम-दल, नव पल्लव
फूटें डालों पर कोमल,
लहरे मलयानिल, कलरव
भर लहरों में मृदु-चंचल !

मुद्रित-नयना कलिकाएँ
फिर खोल नयन निज हेरें,
पर मार प्रेम के आयें,
अलि, बालाएँ मुँह फेरें !

फागुन का फाग मचे फिर,
गावें अलि गुञ्जन -होली,
हँसती नव हास रहें घिर,
बालाएँ डालें रोरी !

मञ्जरियों के मुकुटों में
नव नीलम आम-दलों के
जोड़ो मञ्जुल घड़ियों में
ऋतुपति को पहनाने को
झुक डालों की लड़ियों में l

अयि, पल्लव के पखनों पर
पालो कोमल तन पालो,
आलोक-नग्न पलकों पर
प्रिय की छवि खींच उठा लो l

भर रेणु-रेणु में नभ की,
फैला दो जग की आशा,
खुल जाय खिली कलियों में
नव-नव जीवन की आशा l

प्रिय, केशर के रञ्जन की,
मसि से पत्रों पर लिख दो -
"जग, है लिपि यह नूतन की
सिख लो, तुम भी कुछ सिख लो !

"अति गहन विपिन में जैसे
गिरि के तट काट रही हैं
नव-जल-धाराएँ, वैसे
भाषाएँ सतत बही हैं l"

फिर वर्ष सहस्र पथों से,
आया हँसता-मुख आया,
ऋतुओं के बदल रथों से
लाया तुमको हर लाया !

हाँ, मेरे नभ की तारा
रहना प्रिय, प्रति निशि रहना,
मेरे पथ की ध्रुव धारा
कहना इंगित से कहना !

मैं और न कुछ देखूँगा
इस जग से मौन रहूँगा,
बस नयनों की किरणों में
लख लूँगा, कुछ लख लूँगा !

नव किरणों के तारों से
जग की यह वीणा बाँधो,
प्रिय, व्याकुल झंकारों से,
साधो, अपनी गत साधो !

फिर उर-उर के पथ बन्धुर,
पग-द्रवित मसृण ऋजु कर दो,
खर नव युग की कर-धारा
भर दो द्रुत जग में, भर दो !

फिर नवल कमल-वन फूलें
फिर नयन वहाँ पथ भूलें,
फिर झूलें नव वृन्तों पर
अनुकूलें अलि अनुकूलें l


कवि - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
किताब - निराला रचनावली, भाग - 1
संपादक - नन्दकिशोर नवल
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1983

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