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शनिवार, 30 मार्च 2013

बुनने का समय (Bunane ka samay by Kedarnath Singh)

उठो मरे सोये हुए धागों 
उठो  
उठो कि दर्ज़ी की मशीन चलने लगी है 
उठो कि धोबी पहुँच गया है घाट पर 
उठो कि नंग-धडंग बच्चे 
जा रहे हैं स्कूल 
उठो मेरी सुबह के धागों 
और मेरी शाम के धागों, उठो 

उठो कि ताना कहीं फँस रहा है 
उठो कि भरनी में पड़ गयी हैं गाँठ   
उठो कि नावों के पाल में 
कुछ सूत कम पड़ रहे हैं 

उठो 
झाड़न में 
मोज़ों में 
टाट में 
दरियों में दबे हुए धागों उठो 
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है 
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा 
फिर से बुनना होगा 
उठो मेरे टूटे हुए धागों, उठो 
और मेरे उलझे हुए धागों, उठो 

उठो 
की बुनने का समय हो रहा है            
 
     कवि - केदारनाथ सिंह
     संकलन - यहाँ से देखो
     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

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