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शनिवार, 25 मई 2013

समझौता (Samjhauta by Zehra Nigah)


मुलायम गर्म समझौते की चादर 
ये चादर मैंने बरसों में बुनी है 
कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं 
किसी भी झूठ का टांका नहीं है 

इसी से मैं भी तन ढंक लूंगी अपना 
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे !
न ख़ुश होगे, न पज़मुर्दा रहोगे 

इसी को तान कर बन जायेगा घर 
बिछा लेंगे तो खिल उठेगा आंगन 
उठा लेंगे तो गिर जायेगी चिलमन. 


आसूदा = तृप्त, आश्वस्त        पज़मुर्दा = मुरझाया हुआ, कुम्हलाया हुआ 


शायरा - ज़हरा निगाह 
संकलन - घास तो मुझ जैसी है (पाकिस्तान की विद्रोही स्त्री-कविता)
संकलन व संपादन - शाहिद अनवर 
संपादन सहयोग - हादी सरमदी 
प्रकाशन - संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009

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