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सोमवार, 24 जून 2013

अदालतों में धोती (Adalaton mein dhoti by Premchand)


हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि अदालतों में धोती का क्यों बहिष्कार किया जाता है ? गांधी टोपी तो खैर राष्ट्रीयता का चिह्न है, लेकिन धोती तो सभी पहनते हैं, यहां तक कि मुसलमान भी घर पर अक्सर तहमद ही बांधते हैं, लेकिन फिर भी अदालतों में धोतीपहनना अदालतों का अपमान करना है l क्या धोती से देह नीचे का भाग नग्न रहता है ? धोती तो अक्सर एड़ी तक लटकती रहती है l और अगर ऊंची भी रहे, तो क्या वह उस जांघिये से भी ऊंची होती है, जो लड़ाई के बाद से इतना प्रचलित हो गया है कि हुक्काम इजलास पर भी उसे पहनते हैं l उस जांघिये से तो आधी जांघ तक खुली रहती है, धोती को तो अगर कछनी के रूप में भी पहना जाय, तो वह घुटने से थोड़ी ही ऊपर रहती है l फिर धोती पहनना क्यों जुर्म समझा जाता है ? कोई-कोई साहब बहादुर तो धोती देखते ही जामे से बाहर हो जाते हैं l वकील या डाक्टर या व्यापारी अंग्रेजों को तो धोतियों से चिढ़ नहीं है, वहां लोग बेधड़क धोती पहने जाते हैं l धोती की मुमानियत कवक अदालतों के लिए है l बम्बई और मद्रास में तो अक्सर हिन्दू जज भी धोती पहनते हैं l फिर क्या धोती इसी प्रान्त में आकर अपमान की वस्तु हो जाती है ? क्या इससे भी यहां स्वाधीनता की गन्ध आती है ? 

(संपादकीय l 'जागरण', 31 अक्टूबर, 1932 में प्रकाशित l 'विविध प्रसंग' भाग-3 में संकलित)


लेखक - प्रेमचंद 
किताब - प्रेमचंद रचनावली - 8 
संपादक - राम आनंद 
प्रकाशक -  जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली,1996 

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