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बुधवार, 5 जून 2013

मुड़वाँ कुर्सियाँ (Folding chairs by Günter Grass)


कितने अजीब हैं ये परिवर्तन l 
लोग दरवाज़ों से नामों की तख्तियाँ खोलते हैं l 
करमकल्ले का भगौना उठाते हैं 
और उसे फिर गरमाते हैं, किसी और जगह जा कर l

किस तरह का असबाब है यह 
जो प्रस्थान का एलान करता रहता है ?
लोग अपनी-अपनी मुड़वाँ कुर्सियाँ उठाते हैं 
और कहीं और चले जाते हैं l 

घरों की बेचैन याद और उबकाइयों से लदे जहाज़
ले जाते हैं जुगत से बनी बैठने की निश्चित जगहों को 
और उनके अनिश्चित बदलते मालिकों को 
इधर से उधर l 

अब इस महासागर के दोनों तरफ़ 
मुड़वाँ कुर्सियाँ हैं ;
कितने अजीब हैं ये परिवर्तन l 


कवि - गुंटर ग्रास 
अनुवाद - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  
किताब - धूप की लपेट 
संकलन-संपादन - वीरेन्द्र जैन 
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने कई विदेशी रचनाकारों की कविताओं से हिन्दी पाठकों को परिचित कराया है. 'धूप की लपेट' में  उनकी असंकलित कविताएँ हैं और उनके द्वारा अनूदित कविताएँ भी . उनमें से यहाँ जर्मन रचनाकार गुंटर ग्रास (जन्म-16-10-1927) की एक कविता प्रस्तुत है जो मुख्यतः अपने उपन्यासों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं .

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