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मंगलवार, 25 जून 2013

जुल्म रहे और अम्न भी हो (Julm rahe aur amn bhi ho by Habeeb 'Jalib')


जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

हँसती गाती रौशन वादी 
तारीकी में डूब गई 
बीते दिन की लाश पे ऐ दिल 
मैं रोता हूँ, तू भी रो l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

हर धड़कन पर खौफ़ के पहरे 
हर आंसू पर पाबन्दी 
ये जीवन भी क्या जीवन है 
आग लगे इस जीवन को l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 

अपने  होंठ सिए हैं तुमने 
मेरी ज़बाँ को मत रोको 
तुमको अगर तौफ़ीक़ नहीं तो 
मुझको ही सच कहने दो l 

जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो ! 


तारीकी = अन्धकार        तौफ़ीक़ = सामर्थ्य



शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

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