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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

बज उठती वीणा (Baj uthati veena by Ram Iqabal singh 'Rakesh')

रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की l 

आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर l 

भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा l 

उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी l 

बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी l 

संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में l 
                                  (सितंबर, 1976)

कवि - रामइकबाल सिंह 'राकेश'

किताब - राकेश समग्र

संपादन - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001


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