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रविवार, 1 सितंबर 2013

ग़ज़ल (Ghazal by 'Akhtar' Sheerani)

ग़मे-ज़माना नहीं, इक अज़ाब है साक़ी 
शराब ला, मिरी हालत ख़राब है साक़ी

शबाब के लिए तौबा अज़ाब है साक़ी 
शराब ला, मुझे पासे-शबाब है साक़ी 

उठा पियाला कि गुलशन पे फिर बरसने लगी 
वो मै कि जिसका क़दह माहताब है साक़ी 

निकाल पर्द-ए-मीना से दुख़्तरे-रज़ को 
घटा में किसलिए ये माहताब है साक़ी 

तू वाइज़ों की न सुन, मैकशों की ख़िदमत कर 
गुनह सवाब की ख़ातिर सवाब है साक़ी 

ज़माने भर के ग़मों को है दावते-ग़र्रा
कि एक जाम में सबका जवाब है साक़ी 

कलाम जिसका है मेराजे-हाफ़िजो-ख़य्याम 
यही वो अख़्तरे-ख़ानाख़राब है साक़ी 

अज़ाब = मुसीबत 
पासे-शबाब = जवानी का ख़याल 
क़दह = शराब का घड़ा 
पर्द-ए-मीना = शराब की सुराही के पर्दे से 
दुख़्तरे-रज़ = अंगूर की बेटी यानी शराब
दावते-ग़र्रा = खुली दावत
मेराजे-हाफ़िजो-ख़य्याम = हाफ़िज़ और ख़य्याम नामक शायरों का     पैमाना  
अख़्तरे-ख़ानाख़राब = घर का बरबाद
अख़्तर



शायर - 'अख़्तर' शीरानी संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी

संपादक - नरेश 'नदीम'

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

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