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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

दहशत के साये में (Dahshat ke saaye mein by Habeeb 'Jalib)


ज़िन्दा हैं एक उम्र से दहशत के साये में 
दम घुट रहा है अह्ले-इबादत के साये में 

हमको कहाँ तसव्वरे-जानाँ हुआ नसीब 
बैठे हैं हम कहाँ कभी फुरसत के साये में 

छोड़ा न हमने नक़्श कोई राहे-इश्क़ में 
गुज़री तमाम उम्र नदामत के साये में 

बिछड़े हुए दयारे-दिलो-जाँ के दोस्तो 
पूछो न दुख सहे हैं जो ग़ुरबत के साये में 

ऐ रहरवाने-राहे-सेहर, हमको दाद हो 
लेते हैं साँस ज़ुल्म की ज़ुल्मत के साये में 

हम आएँगे तो आएगा वो अह्दे-ख़ुशगवार 
गुज़रेगी जब हयात मुहब्ब्त के साये में 


अह्ले-इबादत = धार्मिक लोग  
तसव्वरे-जानाँ = प्रियजन की कल्पना 
नक़्श = चिह्न 
नदामत = शर्मिन्दगी 
दयारे-दिलो-जाँ = हृदय और प्राण की बस्ती 
ग़ुरबत = परदेस 
रहरवाने-राहे-सेहर = सुब्ह की राह के राहगीर 
ज़ुल्मत = अन्धकार 
अह्दे-ख़ुशगवार = सुन्दर युग 
हयात = जीवन 


शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

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