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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

कैसी तबाही आई (Kaisi tabaahi aai by Majaz)

 
कैसी तबाही आई !
 
जी बैठ गया, मन हारा
अब सूना है जग सारा 
हर पग पर दुख के काँटे 
हर राह में घोर अँधियारा 
          हर सिम्त उदासी छाई
          कैसी तबाही आई !
 
इक जोत जगाकर पल में 
वो चाँद छिपा बादल में 
अब कोई नहीं है अपना 
इस जीवन के जंगल में 
           हर साँस है एक दुहाई 
           कैसी तबाही आई ! 
 
सपनों के महल सब ढाए 
आशा के दीप बुझाए 
बिपता की आँधी उट्ठी 
दुख-दर्द के बादल छाए 
          आफ़त की घटा मँडलाई 
          कैसी तबाही आई !
 
दुनिया को न मुँह दिखलाऊँ 
जाऊँ तो किधर जाऊँ 
ये दुख मैं किसको बतलाऊँ 
ये दर्द किसे समझाऊँ 
             अब मैं हूँ, मिरी तनहाई 
             कैसी तबाही आई !  
 
सिम्त = तरफ़
 
शायर - 'मजाज़' लखनवी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी   
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

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