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मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

जो नाथेगा नाग (Jo nathega naag by Rakesh Ranjan)

आसमाँ उगलता है भर-भर मुँह आग 
घोड़ों के जबड़ों से झड़ता है झाग 

ऊब है, थकावट है, गुस्सा है, पस्ती है 
लुटे-पिटे लोगों से पटी पड़ी बस्ती है 
बस्ती का नूर हुआ बस्ती से दूर 
बस्ती में कोई मैदान है न बाग !

बस्ती में बच्चे हैं, सच्चे हैं छलियों में 
उछल-उछल खेल रहे गेंद तंग गलियों में 
वे हैं, तो वह भी होगा कहीं जरूर 
होगा ही होगा, जो नाथेगा नाग !



कवि - राकेश रंजन
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

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