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रविवार, 24 अगस्त 2014

तिफ़्ली का ख़्वाब (Tifli ka khwab by Majaz Lakhnawi)

तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों  
इक रोज़ सोज़ो-साज़ की महफ़िल में हम भी हों  
तिफ़्ली = बचपन 

दिल हो असीर गेसू-ए-अंबरसरिश्त में 
उलझे उन्हीं हसीन सलासिल में हम भी हों 
असीर = क़ैदी          सलासिल = ज़ंजीरों  
गेसू-ए-अंबरसरिश्त = ख़ुशबू भरी ज़ुल्फ़ों 


छेड़ा है साज़ हज़रते-सादी ने जिस जगह 
उस बोस्ताँ के शोख़ अनादिल में हम भी हों  
बोस्ताँ = उपवन   अनादिल = बुलबुलों 

गाएँ तराने दोशे-सुरैया पे रख के सर 
तारों से छेड़ हो, महे-कामिल में हम भी हों  
दोशे-सुरैया = तारासमूहों के कंधों  
महे-कामिल = पूर्णिमा का चाँद 

आज़ाद होक कश्मकशे-इल्म से कभी 
आशुफ़्तगाने-इश्क़ की मंज़िल में हम भी हों  
आशुफ़्तगाने-इश्क़ = इश्क़ के दीवानों 

दीवानावार हम भी फिरें कोहो-दश्त में 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल में हम भी हों  
कोहो-दश्त = पहाड़ व रेगिस्तान 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल = ऊँट की पीठ पर औरतों के लिए 
किए जानेवाले पर्दे (महमिल) की सुंदरियों (शोलों) के दीवानों  

दिल को हो शाहज़ादि-ए-मक़सद की धुन लगी 
हैराँ सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल में हम भी हों  
सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल = मंज़िल की राह का सुराग़ पाने 

सेहरा हो, ख़ारज़ार हो, वादी हो, आग हो 
इक दिन उन्हीं महीब मनाज़िल में हम भी हों  
सेहरा = रेगिस्तान    ख़ारज़ार = काँटों भरी धरती 
महीब = भयानक      मनाज़िल = मंज़िलों 

दरिया-ए-हश्रख़ेज़ की मौजों को चीरकर 
किश्ती समेत दामने-साहिल में हम भी हों  
दरिया-ए-हश्रख़ेज़ = क़यामत ढानेवाला दरिया 
दामने-साहिल = किनारे का दामन 

इक लश्करे-अज़ीम हो मसरूफ़े-कारज़ार 
लश्कर के पेश-पेश मुक़ाबिल में हम भी हों 
लश्करे-अज़ीम = भारी फ़ौज    मसरूफ़े-कारज़ार = युद्धरत 
पेश-पेश = आगे-आगे  

चमके हमारे हाथ में भी तेग़े-आबदार 
हंगामे-जंग नर्ग-ए-बातिल में हम भी हों 
नर्ग-ए-बातिल = पापियों के घेरे  

क़दमों पे जिनके ताज हैं अक़्लीमे-दहर के 
उन चंद कुश्तगाने-ग़मे-दिल में हम भी हों  
अक़्लीमे-दहर = दुनिया के देशों 
कुश्तगाने-ग़मे-दिल = दिल के ग़मों के मारे हुओं 


शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

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