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शुक्रवार, 13 मार्च 2015

ख़लिश भी आज तो कुछ कम है (Khalish bhi aaj to kuchh kam hai by Gulam Rabbani Taban)

ख़लिश भी आज तो कुछ कम है दर्द भी कम है 
चराग़ तेज़ करो हाय रौशनी कम है 

उदास उदास है महफ़िल तही हैं पैमाने 
शराब कम है अज़ीज़ो कि तश्नगी कम है 

हमारे साथ चलें आज कू-ए-क़ातिल तक 
वो बुलहवस जो समझते हैं ज़िंदगी कम है 

अभी तो दोश तक आई है ज़ुल्फ़े-आवारा 
अभी जहाने-तमन्ना में बरहमी कम है 

चराग़े-गुल न जले कोई आशियां ही जले 
जुनूं की राहगुज़ारों में रौशनी कम है 

बस और क्या कहें अहबाबे-तंज़-फ़र्मा को 
शऊर कम है, नज़र कम है, आगही कम है 

रहे है मह्व, सनम को ख़ुदा बनाए हुए 
सुना है इन दिनों 'ताबां' की गुमरही कम है 



ख़लिश = कसक 
तही = ख़ाली 
तश्नगी = प्यास 
 कू-ए-क़ातिल = क़ातिल (प्रिय) के कूचे तक 
बुलहवस = विलासी 
दोश = कंधे 
जहाने-तमन्ना = अभिलाषाओं का संसार 
बरहमी = आक्रोश, उन्माद 
अहबाबे-तंज़-फ़र्मा = कटाक्ष करनेवालों को 
शऊर = चेतना 
आगही = ज्ञान 
मह्व = डूबा रहता है, तन्मय 
सनम = बुत 


शायर - ग़ुलाम रब्बानी ताबां 
संकलन = जिधर से गुज़रा हूँ 
संपादक = दुर्गा प्रसाद गुप्त 
प्रकाशक = शिल्पायन, दिल्ली, 2014 

मेरे कॉलेज के दिनों की किसी कॉपी में लिखी यह रचना आज दशकों बाद ताबां साहब के नए संकलन में मिली है. उन दिनों भी मुझे ताबां साहब पसंद थे और आज भी पसंद हैं. 

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