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शनिवार, 4 जुलाई 2015

दोपहर (Dopahar by Purwa Bharadwaj)

आज की दोपहर अनमनी सी बैठी थी तो मनमाफ़िक का ध्यान आया. अरे, मैं हूँ कहाँ ? तीन साल गुज़र गए, 19 जून की तारीख भी बीत गई और मुझे ध्यान नहीं आया कि मनमाफ़िक की सालगिरह थी. 19 जून, 2012 को ऐसी ही एक दोपहर थी जब मैंने मनमाफ़िक शुरू किया था.

दोपहर अक्सर अकेलापन और खालीपन लेकर आती है. उस दिन भी मैं अकेली थी. कविताओं और कहा जाए तो साहित्य की दुनिया से बढ़ती जा रही दूरी से जो छटपटाहट हो रही थी उसे दूर करने के लिए मैंने सोचा कि मैं अपनी मनपसंद रचनाओं का संकलन तैयार करूँ. उत्साही जीव तो मैं हूँ ही, फिर कोई रुकावट थी नहीं. तकनीकी जानकारी के अभाव ने भी मेरे उत्साह पर पानी नहीं डाला. पसंदीदा कविताओं के बीच से मैंने विजय देव नारायण साही की कविता टाइप कर डाली और उसे ब्लॉग पर डाल दिया. अगले दिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ थे. लेकिन फिर मुझे अहसास हुआ कि मनमाफ़िक मेरे सिवा किसी को दिख ही नहीं रहा. ऐसे में अपने दोस्त कब्बू से ही पूछा जो बीच-बीच में ब्लॉग को लेकर मेरी जानकारी बढ़ाता रहता था. उसने लैपटॉप लिया और सर्च इंजन की सेटिंग दुरुस्त कर दी. मुझे उसने View और पूरा Stat देखना सिखलाया. उसके बाद मेरे उत्साह में जो इज़ाफा हुआ उसका क्या कहना!

लेकिन आज उत्साह नहीं है. दोपहर भी तो एक सी नहीं होती है. हर दोपहर अलग होती है - भाव में, रंग-रूप में और छोटाई-बड़ाई में भी. ज़रूरी नहीं कि धूप का चटकीलापन या हवा का रुख ही उसे अलग करे. शायद एक को दूसरे से अलग बनाने में मन का भाव ही सबसे अहम भूमिका निभाता है.

मुझे ऐसी अनगिनत दोपहर याद हैं जब पटना कॉलेज के गंगा किनारेवाले वाणिज्य (कॉमर्स) भवन से लेकर बी.ए.लेक्चर थियेटर, लाइब्रेरी और सड़क पार के PBH का हम चक्कर लगाया करते थे. खासकर PBH हमारा अड्डा था जहाँ AISF के साथियों का हर वक्त जमावड़ा रहता था. तब लेफ्ट राइट करते हुए मुझे कभी अहसास नहीं हुआ कि वह अक्सर दोपहर का ही समय हुआ करता था.

माँ ज़रूर गुस्सा होती थी कि खड़ी दोपहर में कहाँ-कहाँ घूमती रहती है लड़की. हँसी आती थी कि खड़ी दोपहर और बैठी दोपहर और सोई दोपहर क्या होता है. भरी दोपहर का मतलब भी तब समझ में नहीं आता था. अब जब हिंसा की खबरें देखती हूँ तो माँ की चिंता समझ में आती है. सुनसान होना दोपहर का एक गुण है और वह खतरनाक माना जाता है. किंचित् रहस्यमय भी. दोपहर में किसी ठूँठ पर बैठे जिन्न-प्रेत के किस्से याद कीजिए या सफ़ेद चादर में लिपटी किसी आकृति को.

मध्याह्न कहने पर सीधा ध्यान जाता है कि यह दिन के बीचो बीच का समय है जब सूरज ठीक हमारे सर पर होता है. बीचो बीच का मतलब मझधार समझिए या यह कि आधा सफ़र कट गया, यह निर्भर करता है आपके नज़रिए पर. सकारात्मक हैं आप तो कहेंगे कि आप मंज़िल की ओर बढ़ते जा रहे हैं, वरना नकारात्मक बंदा इसे ढलान ही मान लेगा. जब जब हेमंत कुमार की आवाज़  में मैं "बस एक चुप सी लगी है" मुखड़े वाला गीत सुनती हूँ तो इन पंक्तियों पर ज़रूर ठहरती हूँ - " सहर भी ये रात भी/ दोपहर भी मिली लेकिन/ हमीं ने शाम चुनी"

जीवन की दोपहर को देखें. यह परीक्षा की घड़ी भी बन जाती है. उसमें उम्मीद की जाती है कि आप तनकर खड़े रहें. उस वक्त इसका रिश्ता उम्र से नहीं रह जाता है. छाँह हो या न हो इस दोपहर से पार पाना होता है. इसका मतलब क्या यह है कि दोपहर जिजीविषा का उत्स है ?

कठिनाई से दोपहर का रिश्ता सीधा है. आप कोई बैठक या धरना-जुलूस या नाटक के रिहर्सल का समय दोपहर रख कर जाँच लीजिए. वह अलग बात है कि दोपहर में भोज-भात हो तो उपस्थिति हो जाती है. दोपहर के भोजनवाले सत्र के ठीक पहले तो सेमिनार में भी संख्या बढ़ने की उम्मीद की जाती है. कई बार लोगों को खींचने के लिए दोपहर के भोजन को चुंबक की तरह इस्तेमाल किया  जाता है. लोगों की यह सोच बच्चों के लिए स्कूलों में दिए जा रहे दोपहरी के भोजन को लेकर भी है. वह कितना उपकरणात्मक  इस्तेमाल है और कितना अधिकार, यह लोग जानते हैं. मानें भले नहीं. हमारे आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो दोपहरी के भोजन खानेवाले बच्चों के प्रति अपने हिकारत के भाव को छुपाने की ज़हमत भी नहीं उठाते.


इसी से ध्यान आया कि दोपहर एक मापदंड भी है. यदि स्कूल में दोपहर तक बच्चे टिक गए, दफ्तर में साहब और बाबू लोग टिक गए तो मानिए कि सबकुछ बढ़िया चल रहा है. दोपहर बाद तक टिकना तो सफलता की कसौटी पर खरा उतरना है. यह इसका प्रमाण है कि काम की गुणवत्ता अच्छी है. औचक निरीक्षण भी कई बार दोपहर बाद किया जाता है ताकि सच्चाई का पता चले. वह अधिकारी लोग अधीनस्थों का करते हैं. उन अधीनस्थों की सूची बड़ी लंबी होगी और वह कभी कभी मज़ेदार किस्सों से भरपूर हो सकती है ! 

अलग अलग पाली (शिफ्ट) में काम करनेवालों के लिए बहुत बार दोपहर सुबह की तरह होती है यानी दिन की शुरुआत. कुछ ऐसे पेशे भी हैं जहाँ पाली का चक्कर हो या न हो लोग दोपहर में दफ़्तर पहुँचते हैं. जैसे अख़बार या इलेक्ट्रोनिक मीडिया वगैरह में (ज़ोर वगैरह पर है क्योंकि किसी को बदनाम करने का मेरा इरादा नहीं है.) काम करनेवाले बहुत सारे लोग. इसे कहते हैं सुख. वैसे कामकाजियों के बीच आरामतलब लोगों की पहचान घुलमिल जाती है और हम केवल रश्क करते हुए रह जाते हैं !

दोपहर का सुख नींद से बहुत जुड़ा हुआ है. जब सारी रात जगकर कोई नौजवान फिल्म देखे या गप्प मारे और उसे दोपहर तक सोने को मिल जाए तो उससे बढ़कर क्या हो सकता है !  हमें तो उतना नसीब नहीं है, मगर कभी कभार दोपहर की नींद खींचने को ज़रूर मिल जाती है. नींद न सही, इत्मीनान भरी दोपहर तो मिल ही जाती है. उसमें पुराने टीवी धारावाहिक देखो या पड़ोसन से गप्प करो या कागज़ काले करो. ऊब हुई तो साथी बनेंगे फोन या लैपटॉप. 

छुट्टी के संदर्भ में दोपहर का महत्त्व विवाद से परे है. स्कूलों में इस दोपहर की छुट्टी का जितना बेसब्री से इंतज़ार होता है उससे कम दूसरों को नहीं होता है. खाना, खेलना, पेंगे बढ़ाना, फरियाना सबकुछ होता है. फुरसत के इन पलों में छिटपुट काम निपटा लिए जाते हैं. इस तरह सुस्ती लेकर आनेवाली दोपहर आपकी गति भी बढ़ा देती है. माँ कभी बटन टाँकती हुई नज़र आती थी तो कभी कपड़े तह करते हुए. मेरी एक दोस्त कपड़े इस्त्री करने के लिए दोपहर चुनती है तो दूसरी को बेकिंग में नया आजमाने के लिए दोपहर की शांति अच्छी लगती है. घरेलू चिल्ल-पों से तात्कालिक राहत की यह घड़ी शौक पूरा करने के काम आती है. भूले-बिसरे गीत सुनो या पेंटिंग करो या कुछ भी मनमाफ़िक करो !

दोपहर में कौन क्या करता है, इसका सर्वेक्षण कराना चाहिए. है न ? क्योंकि दोपहर का रिश्ता ढूँढने से भी है.