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शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

लेखा जोखा (Lekha-Jokha by Purwa Bharadwaj)

नया साल आ गया। वर्षांत अभी अभी हुआ है और पूरे साल का लेखा जोखा लेने में अधिकांश मुब्तला हैं। लोग से अधिक संस्थान व्यस्त हैं। उनका वित्तीय लेखा-जोखा रखना समझ में आता है, वह पारदर्शिता के लिए ज़रूरी है। काम का फायदा-नुकसान कितना हुआ, निवेश के मुकाबले असर हुआ या नहीं, लक्ष्य समूह तक बात पहुँची या नहीं - सबका जायज़ा लिया जाता है।  मैं लंबे समय तक गैर-सरकारी संस्थानों से जुड़ी रही हूँ तो उनकी चिंताओं से वाकिफ़ हूँ। मार्च की तैयारी में वर्षांत गुज़रता है। जब तक कोई शगूफा न छूटे यह लेखा-जोखा रुटीन में शामिल रहता है और आम तौर पर लोगों की निगाहों से ओझल रहता है।

वर्षांत का लेखा-जोखा जो एकदम सामने आता है वह है अख़बार, पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन चैनलों, रेडियो आदि का। आजकल  फेसबुक और व्हाट्स ऐप वगैरह सब इसमें जुट गए हैं। क्या आभासी क्या ठोस माध्यम, सब में होड़ लगी है कि कौन अनूठे तरीके से लेखा जोखा लेता है। उसे प्रस्तुत करने में जिस जोशो खरोश से सब भिड़े रहते हैं वह बहुत स्वाभाविक नहीं लगता है। एक किस्म का नकलीपन मालूम होता है। या यह कहना अहंकारपूर्ण होगा। जो हो, मुझे इस प्रयास में कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी लगती है। 

कल ही इंडियन एक्सप्रेस पढ़ रही थी। उसमें चार लोगों से बातचीत की गई थी - 2015 के लिए जो उन्होंने सपने देखे थे उनकी परिणति क्या रही, इसको लेकर। पूरे साल के वैयक्तिक संघर्ष, बृहत्तर राजनीतिक परिदृश्य, लालफीताशाही, घरवालों की बीमारी से लेकर मीडिया की भूमिका तक की झलक हमें मिली। किसी  का सपना पूरा हुआ, किसी को आंशिक सफलता मिली तो किसी को रास्ता बदलकर भी कुछ हाथ न लगा तो किसी ने दूसरों में भी सपने जगाए। मैं सोच रही थी कि ज़िंदगियों को टुकड़े-टुकड़े में बाँटकर लेखा-जोखा लिया जा सकता है क्या ! मतलब मेरा एक साल कैसा रहा, दूसरा कैसा रहा, इसी तरह तीसरा या दसवाँ-बीसवाँ साल कैसा रहा, इसमें मेरा लेखा-जोखा  होगा या मेरे संदर्भ का या मेरे संदर्भ को गढ़नेवाले कारकों का ? या फिर नीतियों का और राजनीति का ? 

मेरे हिसाब से यह तय होगा कि निशाने पर कौन है - इंसान, परिवेश, विचारधारा या समय. तात्पर्य यह कि लेखा-जोखा किसी का भी लिया जा सकता है। सालाना लेखा-जोखा को मारें गोली, हम रोज़मर्रा की गप्पबाज़ी को लें। निशाने पर अधिकतर इंसान रहता है। उनमें प्रतिशत अपनों और परिचितों का अधिक रहता है। अनजान और दूर के लोग निशाने पर आते हैं तो दाँतों को हम तनिक कम पिजाते हैं, अपने गलित नख-दंत का इस्तेमाल उतना नहीं करते हैं। फिर शुरू होने भर की देर रहती है। आधे घंटे क्या, मिनटों में खड़े-खड़े अगले को नाप लेते हैं हमलोग। उसका पूरा सरापा, पूरा इतिहास-भूगोल सामने आ जाता है। वह लेखा-जोखा कब निंदा-पुराण में बदल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता है। 

वस्तुनिष्ठता लेखा-जोखा का अनिवार्य अंग मानी जाती है, लेकिन वह अक्सर दुर्लभ की कोटि में आती है। इसकी वजह यह है कि इस पनघट की डगर बड़ी फिसलन भरी है। अलग अलग समय पर एक ही वृत्तांत अलग अलग नुक्ते के लिए काम आता है, यह भी अनुभव रहा है। इन दिनों ब्यौरों का बेजा इस्तेमाल मन खिन्न भी कर देता है। वस्तुनिष्ठता कब आत्मनिष्ठ हो जाती है, कब कुत्सा, ईर्ष्या, लोभ और द्वेष आदि में बदल जाती है - यह पता ही नहीं चलता है। हम भी कब उसमें धँस जाते हैं खुद हमें पता नहीं होता है। अलबत्ता अपने द्वारा किए गए लेखा-जोखा की वस्तुनिष्ठता का ढोल हम अवश्य पीटते रहते हैं।

देखा जाए तो लेखा-जोखा रखना कोरी रस्म अदायगी नहीं है, न ही यह कोई नई परिघटना है। धर्म से जुड़ी अवधारणाओं में पूरे जीवन का लेखा-जोखा रखा जाता है। स्वर्ग-नरक, जन्नत-दोजख आदि की अवधारणाएँ यही तो हैं। इस काम के लिए देवता भी मुक़र्रर किए जाते हैं। हमारी संस्कृति में ही नहीं, अन्य (विदेशी से बेहतर शब्द है यह) संस्कृतियों में भी लेखा-जोखा रखनेवाले देवी-देवता मिल जाएँगे। अलग देवी-देवता की नियुक्ति न भी हो तो ईश्वर है न ? पल पल का लेखा जोखा रखनेवाला। इसलिए उसकी ताकत बढ़ जाती है।  हम लेखा जोखा रखनेवाले इंसान ही नहीं, भगवान को भी रिश्वत देने लगते हैं। सच पूछो तो खासा पेचीदा है यह लेखा-जोखा। इसमें धर्म का पेंच लगा है, राजनीति है ही। 

मुझे डर लगता है इससे। (इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मैं अपने आपको इस धार्मिक बना दिए गए कर्त्तव्य से पूरी तरह मुक्त मानती हूँ. खुद संलग्न होने के बावजूद मुझे डर लगता है।) इसकी आवृत्ति कितनी बार होती है ! कभी रिश्तों का लेखा-जोखा, कभी मान-अपमान का, कभी प्यार-मनुहार का, कभी गुस्से की मात्रा का तो कभी चूक के अहसास का। यदि अनुपात ठीक रहे तो हमें इत्मीनान हो जाता है, वरना यह लेखा-जोखा चैन नहीं लेने देता।

एक वक्त था जब मेरा हिसाब पक्का हुआ करता था। मैं किसी को मुँह नहीं लगने देती थी। अपनी स्मृति पर इतना भरोसा हुआ करता था मुझे। आज की तारीख में स्मृतियों का  लेखा-जोखा तो मुझे उलझाए ही रखता है। इसका अहसास मुझे धीरे धीरे होने लगा था। घबराहट हावी होने के पहले ही पिछले साल मैंने डायरी में मुख्य मुख्य बातों को दर्ज करना शुरू कर दिया था। लेकिन उससे बहुत फायदा हुआ नहीं क्योंकि मुख्य बातों में ज़िंदगी नहीं होती है। ज़िंदगी तो मुख्य बातों और घटनाओं की छोटी छोटी बारीकियों में पिरोई होती है। वह यदि फिसल गई तो लेखा-जोखा किसका होगा ?

यह साल कैसा होगा, इसकी आशंका से मुक्त होने का प्रयास कर रही हूँ। मन ही मन तय कर रही हूँ कि NO लेखा-जोखा ! खासकर इसमें जो जोखना शब्द है उसका तौलनेवाला अर्थ मिटा देना है मुझे। जो है उसे बहने दो। मेंड़ बनाकर उसका लेखा-जोखा क्या रखना ! जो है साथ चले, साथ रमे और साथ टिके। बस ! 

लोगों को लेकर यह इच्छा बलवती होती जा रही है। अपूर्व से बात हो रही थी कि हमें दिल्ली आए जितने साल हुए उस दौरान कितने लोग छूट गए। बात फिर हर एक साल पर आ गई। गिनो तो मन घबराता है। डायरी के पन्नों पर नाम बदस्तूर हैं। फेसबुक पन्ना किसी तारीख पर आकर अटक गया है। फोन में नंबर लिखे हुए हैं जिनको मिटाने की हिम्मत नहीं है मुझे। चाहती भी नहीं हूँ। लेकिन यह क्या ? क्या हम अपने दिल्ली वास (प्रवास कहने का मन नहीं है) का लेखा-जोखा रखने लगे ? और उसके नाम पर छूट गए लोगों का ?

कुछ नहीं करना है मुझे। मन करता है कि माँ-पापा के पास चली जाऊँ। भैया से पहले की तरह लडूँ या ज़िद करूँ। और गुज़रे दिनों का कोई लेखा-जोखा न हो ! माँ टाल से लकड़ी लाए और हम सब तापें। 

(पुनश्च : एक संशोधन ज़रूर चाहूँगी। वह यह कि आग तापते समय अपूर्व की गोदी में ऊनी चादर में लिपटी हुई बेटी वैसी ही बैठी दिखे जैसे मैं पापा की गोदी में बैठती थी !)

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