Translate

बुधवार, 5 जुलाई 2017

हिंदी में काम (By Purwa Bharadwaj)

हिंदी में काम करती हूँ तो अक्सर अंग्रेज़ी से भी टकराना ही पड़ता है. लैपटॉप पर काम करने और 24 घंटे उपलब्ध इंटरनेट की सुविधा ने गूगल से भी ख़ासा परिचय करा दिया है. फिर भी गूगल पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहने की सतर्कता बरतती हूँ. हाँ, राह दिखाने के लिए गूगल की उपयोगिता से इनकार नहीं है.

अभी मैंने आत्महत्या गूगल पर टाइप किया तो सबसे पहले आया आत्महत्या करने के आसान तरीके, आत्महत्या के सरल उपाय, दर्दरहित आत्महत्या आदि. अलबत्ता उनके लिंक खोलो तो दार्शनिक तरीके से जीवन की सकारात्मकता पर उपदेश और निर्देश मिला. वहीं Sucide टाइप किया तो सीधा एक नंबर दिखा. एक हेल्पलाइन नंबर. मुंबई के आसरा हेल्पलाइन का जो अकेलेपन, उदासी और आत्महत्या का ख़याल आने जैसे संकट की घड़ी में व्यक्ति से बात करने को हर वक्त तैयार है. वह कितना कारगर है, यह अलग मसला है. या ऐसी मनोदशा में कोई मदद माँगने के लिए इंटरनेट का सहारा लेगा या नहीं और यदि हाँ तो वह किस तबके का, किस नगर-ग्राम का होगा, इसका विवेचन मुझे नहीं करना है. ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर किसी तरह की अटकलबाज़ी मुझे नहीं करनी है. मेरा ध्यान गया कि भाषा की खाई कितनी बड़ी है.


दोनों भाषाओं के बीच की खाई गुणवत्ता में अंतर की भी खाई है. साधारण तौर पर माना जाता है कि जो अंग्रेज़ी में लिखा या कहा जाता है वह अधिक वज़नदार होता है और हिन्दी की रचना थोड़ी पोली और सतही होती है. कारण बताया जाता है संसाधन का. माना जाता है कि अंग्रेज़ीवाले लिखने या कहने के पहले मेहनत करते हैं, उनके पास देश-दुनिया का exposure होता है, इसलिए अधिक मेहनताना पाना उनका हक़ है जबकि दूसरी तरफ हिन्दीवाले शारीरिक-मानसिक आलस्य के कारण ठीक ही दोयम दर्जे के होते हैं. मेरे ख़याल में यह भ्रम जान-बूझकर फैलाया गया है. हालाँकि ढेर सारी हिन्दी की सामग्री इसकी गवाही देती है.

हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के सत्ता संबंधों और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा को जानती हूँ. जेंडर, जाति, वर्ग आदि की परतों को भी.भुक्तभोगी भी रही हूँ क्योंकि मैंने हिन्दी में ही काम करने का निर्णय किया. बीच बीच में अंग्रेज़ी से हिन्दी में कुछ अनुवाद भी किया, लेकिन उसमें जितनी मेहनत लगती है उसके मुकाबले न मेहनताना मिलता है और न उसको बहुत गंभीरता से लिया जाता है. अपने संपादन के काम के चक्कर में मैंने कई घटिया अनुवादों को दुरुस्त करते हुए बहुत सिर धुना है. यह भी जानती हूँ कि अंग्रेज़ी के मुहावरों से बहुत वाबस्ता न होने के कारण कभी कभी बेवकूफ़ाना अर्थ भी निकाल दिया है मैंने, मगर लेखक-लेखिका की भाषा की लय पकड़ में आ जाए और विषय समझ में आता हो तो अनुवाद के काम का रस भी मैंने लिया है. हाँ, हिन्दी से अंग्रेज़ी अनुवाद करने का दुस्साहस मैंने कभी नहीं किया. बावजूद इसके कि बी.ए. के कोर्स में मुल्कराज आनंद, आर. के. नारायण, शेक्सपियर से लेकर दर्शनशास्त्र में कांट और हेगेल के सिद्धांत और फिर शोध कार्य के दौरान वैदिक संस्कृत के विदेशी विद्वानों के विचारों से लेकर जेंडर-यौनिकता-राष्ट्र आदि की अवधारणाओं तक की समझ बनाने में अंग्रेज़ी ही मददगार रही है.

हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी का रिश्ता ठीक ठीक क्या है, यह संदर्भ बदलते ही बदल जाता है. मुझे याद आता है जब मैं बचपन में अपने गाँव चाँदपुरा जाती थी तो खालिस बज्जिका न बोल पाने के कारण उसमें खड़ी बोली मिला-मिला कर बोलती थी. तब सब सहेलियाँ यह कहकर हँसती थीं कि 'अंग्रेज़ी' बोल रही हो. उस समय खड़ी बोली alien थी तो उसे अंग्रेज़ी कहा जाता था. Othering के लिए और हिकारत के स्वर में किसी भी चीज़ के लिए अंग्रेज़ी का ठप्पा लगा देना सामान्य व्यवहार था. ऊँचाई देने के लिए, Upward mobility दिखाने के लिए, Class बताने के लिए शराब से लेकर पाखाने और खुशबू तक के आगे अंग्रेज़ी जोड़ना अभी भी चलता है. मेरी माँ पास्ता, पिज़्ज़ा, मैगी (बाबा रामदेव का पतंजलि नूडल्स आ जाने के बाद भी) को अंग्रेज़ी खाना ही मानती है. या विलायती खाना कहती है. अंग्रेज़ी और विलायती एक दूसरे के पर्याय के रूप में जाने कब से इस्तेमाल हो रहे हैं. (पता करना चाहिए कि क्या औपनिवेशिक काल में इसके सूत्र हैं.) विलायती चाल, विलायती पेड़, विलायती कपड़ा, विलायती रंग ही नहीं, विलायती चमड़ी और विलायती रहन-सहन - कितना कुछ हमारी रोज़ाना ज़िंदगी से जुड़ा है.

इधर हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं की मिलावट को खासी मान्यता मिल गई है. हिंग्लिश पर बाजाप्ता अध्ययन हो रहा है, उसका व्यवहार करनेवालों का नक्शा खींचा जा रहा है, उसके इस्तेमाल से शर्म या संकोच का रिश्ता ख़त्म हो रहा है, हर तरह के बाज़ार में वह बिक रहा है. फिर भी मैं नीर-क्षीर विवेक के साथ इसे समझना चाहती हूँ. नीर कौन है और क्षीर कौन है, दोनों का अनुपात समझना चाहती हूँ और यह भी कि किस पर किसका रंग अधिक चढ़ेगा, वर्चस्व की लड़ाई में कौन कहाँ और कब तक टिकेगा.

हूँ मैं हिन्दी मीडियमवाली. ताजातरीन फिल्म नहीं, सचमुच के हिन्दी मीडियम स्कूल की बात कर रही हूँ. मेरे स्कूल का नाम था राजकीय बुनियादी अभ्यासशाला. हमारी गली (जो यूँ ही सी नहीं थी, बल्कि प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर के रानीघाट की गली थी जहाँ से सम्राट अशोक की रानी सुरंग के रास्ते गंगास्नान के लिए जाती थी}के मोड़ पर हमारा स्कूल था. वहाँ स्कूल यूनिफ़ॉर्म नहीं था और सब उसे घुघनिया स्कूल बुलाते थे. सरकारी हिन्दी मीडियम के उस स्कूल की यह संज्ञा उस समय मुझे बहुत अपमानजनक लगती थी और आज तक उसकी चुभन को मैं महसूस करती हूँ. मेरे पापा ने हिन्दी के व्याख्याता होने के कारण नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट होने के कारण उस सादे से स्कूल को चुना था जहाँ हर तबके के बच्चे आते थे. बहुत बाद में जाकर पापा के उस निर्णय को मैं सकारात्मक रूप से ले पाई, वरना कभी कभी हिन्दी मीडियम स्कूल को लेकर मन में मलाल आ जाता था.

मेरा हाई स्कूल था बाँकीपुर स्कूल, हिन्दी मीडियम ही. सम्मानित था. विशालकाय गोलघर के ठीक सामने. स्कूल का बड़ा सा हाता था, शानदार बस सर्विस थी और हर बस में एक देखभाल करनेवाली मौसी रहती थी.  मेरी माँ भी वहीं पढ़ती थी. कुल मिलाकर स्कूल का भव्य चरित्र उसकी भाषा पर ध्यान नहीं जाने देता था. वहाँ एक एक क्लास में 5-6 सेक्शन थे. खुद मेरा दाखिला 'ई' सेक्शन में हुआ था. इस स्कूल में काफी अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल की लड़कियाँ भी आती थीं. वहाँ भूले से भी हिन्दी हीनता का भाव नहीं पैदा करती थी. एक बार जब स्कूल का प्रतिनिधित्व करते हुए मेरी टीम ने रोटरी क्लब का शील्ड जीता था तो हमारी खुशी इससे चौगुनी हो गई थी कि हमने पटना के मशहूर अंग्रेज़ी स्कूलों की सभी टीमों को पीछे छोड़ दिया था. सिर्फ लड़कियों के स्कूलों को नहीं, लड़कों के बड़े बड़े स्कूलों - डॉन बोस्को और सेंट माइकल को भी बाँकीपुर टीम ने हराया था. उस समय जेंडर का नज़रिया नहीं था, न समाज की बनावट में पैवस्त गैर बराबरी में भाषा की भूमिका को ठीक से जानती थी. अब लगता है कि हिन्दी से जुड़े भाव का संख्या से भी रिश्ता है.

पढ़ाई मेरी संस्कृत की है. आगे संस्कृत ही पढ़ना है, यह मैंने पाँचवीं कक्षा में ही तय कर लिया था जब पहली बार संस्कृत से मुलाकात हुई थी. इसलिए कॉलेज में पहला विषय जो मैंने चुना, वह संस्कृत था. आगे उसी में ऑनर्स और एम.ए. करने का निर्णय भी उतना ही सहज था. लोग थोड़ा चकित होते कि पापा हिन्दी में हैं तो बेटी को वह विषय पढ़ना ही चाहिए. भैया पहले साइंस पढ़ रहा था, उससे हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा किसी को नहीं थी क्योंकि बेटा जो ठहरा. बाद में शिक्षा व्यवस्था, विषय के चुनाव, भाषा और जेंडर के जुड़ाव को जब मैंने समझा तब मुझे पड़ोसियों के उस सामान्य से सवाल का मतलब समझ में आया कि मुझसे हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा का सीधा संबंध सामाजिक ढाँचे से है. हालाँकि संस्कृत लेने के कारण मुझसे अधिक सवाल नहीं हुए. लोगों की नज़र में संस्कृत ठहरी हिन्दी की माँ !

देखा जाए तो कॉलेज में अनिवार्य हिन्दी के पेपर के अलावा मैंने हिन्दी को विषय के तौर पर चुनकर पढ़ाई कभी नहीं की है. हाँ, हिन्दी अगल-बगल चारों तरफ थी मेरे. माँ-पापा सब हिन्दी वाले हैं. नानाजी पं. रामगोपाल शर्मा 'रुद्र ' हिन्दी और मगही के कवि ठहरे. मैंने शादी की हिन्दी में कविता करनेवाले से जिसने आगे चलकर कविता तो छोड़ दी, मगर हिन्दी में आलोचना लिखना जारी रखा. पेशे के तौर पर हिन्दी का अध्यापन ही चुना. मतलब मेरे लिए सोना-ओढ़ना-बिछाना सब हिन्दी का रहा.

बचपन से मैं माँ के मुँह से दिनकर, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, हंसकुमार तिवारी, ब्रजकिशोर नारायण आदि के किस्से सुनती आई हूँ. पापा की वजह से अमृतलाल नागर, केदारनाथ अग्रवाल, भीष्म साहनी, त्रिलोचन शास्त्री से लेकर हिन्दी के बड़े-छोटे सभी साहित्यकारों को मैंने करीब से देखा है. नागार्जुन नानाजी तो महीनों घर में रुकते थे. उनसे मैंने कहा था कि मेरे नाम पर कविता लिख दीजिए। उन्होंने पूर्वा, पूर्वी, पुरबिया का नामोच्चार करते हुए 'मात्राएँ दीर्घ हैं' (http://manmaafik.blogspot.in/2012/07/blog-post_3216.html) शीर्षक से कविता लिखी भी. यह बात दीगर है कि मुझे उस समय लगा था कि उन्होंने मुझे बच्ची समझकर टहला दिया है और हिन्दी की एक बोरिंग सी कविता लिखकर खानापूर्ति कर दी है. अब उस पर खुश होती हूँ तभी तो मनमाफ़िक पर डाल दिया है :)

समय के साथ मैंने हिन्दी की ताकत और उससे होनेवाले नफा-नुकसान को समझा है. भाषा की राजनीति से भी अनजान नहीं हूँ. मुझे याद है जब कई साल पहले Textbook Study के विश्लेषण को JNU में पेश किया था तो कइयों ने आकर मुझसे कहा था कि आपकी हिन्दी बड़ी अच्छी है. मानो बात मेरी कूड़ा-कर्कट थी, केवल भाषा की पैकेजिंग अच्छी थी. अपूर्वानंद भी ऐसी टिप्पणियों के आदी हैं और हर बार विषयवस्तु से अलग करके सिर्फ हिन्दी की तारीफ़ करनेवालों पर हँसते हैं. मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि यह खोखलापन किसका है - हिन्दी भाषा का या उसके तथाकथित प्रेमियों का.



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें