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रविवार, 13 अगस्त 2017

अर्थी (By Purwa Bharadwaj)

कल दिन की बात है. एक कागज़ खोजने के चक्कर में मैंने सारी फ़ाइल खँगाल डाली. फिर बारी आई सिरहाने और पैताने रखे कागज़ात की. [परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी अपने बिस्तर के नीचे कागज़-पत्तर रखती हूँ. आलमारी में सहेजने से ज़्यादा आसान है यह तरीका. तोशक उठाओ और फट से डाल दो.]  इक्का दुक्का कागज़ नहीं, पूरा ज़खीरा है वहाँ. उसमें बीमा की रसीद, पेट्रोल की पर्ची, एक्वा गार्ड का AMC, लैपटॉप की वारंटी, चेकबुक, पुरानी तस्वीर, बीसियों विजिटिंग कार्ड आदि से लेकर सफलसे खरीदी गई सब्ज़ियों का बिल तक था जिसे मैंने फुर्सत में मिलान करने और सब्ज़ियों का ताज़ा भाव जानने के लिहाज़ से रख छोड़ा था. एक रूलदार पन्ने पर एक सूची भी मिली. मैंने पढ़ना शुरू किया ताकि फालतू हो तो फेंक दूँ. पहला शब्द जो था उस पर मैं ठिठक गई. जानते हैं वह शब्द क्या था ? अर्थी. सही हिज्जे और साफ़ अक्षर. सामने दाम लिखा था. वह सूची 20 रुपए के गंगाजल और 30 रुपए की फुलमालापर ख़त्म होती थी.


वह कागज़ वापस सिरहाने पहुँच गया. मेरे सामने लगभग दो साल पुरानी दुर्घटना का एक एक पल घूम गया. अपूर्व की भतीजी से जुड़ा था वह. जिसे बचपन से देखा हो उसके अंतिम संस्कार का सामान भी जुटाना पड़े, इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है! दिल्ली आई थी पढ़ने और यहीं के आसमान में खो गई. सड़क दुर्घटना के बाद अस्पताल, mortuary और एम्बुलेंस पर निकटवर्ती शहर से दिल्ली तक का उसका सफ़र स्ट्रेचर पर कटा. फिर सीधे निगमबोध घाट. हमलोग लोकल गार्जियन थे, मगर इस बार घर नहीं आई वह. घाट पर मौजूद परिजनों को अपने को सँभालकर इंतज़ाम बात में लगना पड़ा. पंडित ने जो सूची पकड़ाई उसमें सबसे ऊपर लिखा था अर्थी.

जीवन का अंत है यह, ऐसे समझें या यही जीवन का बुनियादी सत्य है, ऐसे मानें. चिरंतन चलनेवाली दार्शनिक बहस को पलटने का मन हुआ मेरा. तभी लगा कि अर्थी संस्कारों के पचड़े में फँसी चीज़ है. मैंने अपने रैक के पिछले खाने में रखी याज्ञवल्क्य स्मृतिकी धूल झाड़ी जिसमें चटक गुलाबी रंग की छोटी छोटी लगभग 10-11 झंडियाँ लगी हुई थीं. वही ... जो आजकल Post it नाम से बिकती हैं. उन रंगीन झंडियों से सजी किताब को मैंने इस बेरंग अर्थी शब्द से जुड़े प्रसंगों का विवरण जानने के लिए खोला था. ठीक-ठीक कुछ नहीं मिला. हाँ, तीसरे प्रायश्चित्त अध्याय का पहला प्रकरण ही है आशौच (यानी अपवित्रता, अशौच+अण् प्रत्यय) प्रकरण जिसके पहले श्लोक में शवानुगमन का नियम है. आगे प्रेतदाह के बाद लौट कर घर में प्रवेश करने की विधि, आशौच की शुद्धि के साधन आदि आदि. नेम-टेम बहुत है, मगर यात्रा के उस साधन का ब्यौरा नहीं मिला. संभव है कि धर्मशास्त्र में अन्यत्र शवयात्रा के विधि विधान के अलावा अर्थी के बारे में मिल जाए.

अर्थी के बारे में जानना क्या ज़रूरी है मेरे मन में रह रहकर यह सवाल उठ रहा था. सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह बाँस का बना ढाँचा है जिस पर इंसान को मृत्यु के बाद रखकर जीवन के अंतिम संस्कार यानी दाह संस्कार के लिए ले जाया जाता है. इसके लिए सीढ़ी या टिकठी जैसे शब्द भी चलते हैं. इसे बनानेवाले और बेचनेवाले खास होते हैं. खास मैं जाति के अर्थ में नहीं कह रही हूँ, बल्कि जानकार के रूप में कह रही हूँ. अर्थी की लंबाई-चौड़ाई, वज़न, गुणवत्ता आदि वही जानते हैं. इस ज्ञान के बदौलत वे मोल-तोल करने की हालत में होते हैं. भले अपने जीवन में हम उन्हें आँख उठाकर भी न देखें, मगर मृत्यु का क्षण हमें उनकी चौखट पर ला खड़ा करता है.

अनुभव अर्थी बाँधने, सजाने और उठाने सबके लिए चाहिए. अर्थी ठीक से बाँधी जा रही है या नहीं, सिर से पाँव तक बार-बार शरीर पर रस्सी लपेटी गई या नहीं, रस्सी पर्याप्त कसी है या नहीं, मृतक के लिए बंधन सुविधाजनक है या नहीं  इन सबको लेकर चलनेवाले वार्तालाप पर कभी ध्यान दीजिएगा. अर्थी पर लेटे इंसान को गंतव्य तक पहुँचा ही दिया जाए, इसे सुनिश्चित करना होता है. सजाने के लिए फूल-माला, रामनामी चादर, ऊनी या रेशमी शॉल का चलन है. मगर क्या सारी अर्थी सजती है ? नहीं. अकाल मृत्यु जिसकी होती है उसमें दुख इतना भारी होता है कि सजाने-बजाने का सवाल ही नहीं उठता. दीर्घायु और खासकर शतायु व्यक्ति की अर्थी को अक्सर खूब सजाते हैं. एक तरह से अर्थी दुर्घटना-दुर्योग से लेकर जीवन जीने की सार्थकता और व्यर्थता सबको व्यंजित करती है.

मेरे माँ-पापा पटना में पहले जिन जिन जगहों में रहे हैं वहाँ घाट ही घाट था. पहले रानीघाट, फिर गुलबी घाट और घघा घाट. गली में से आते-जाते हमने अनगिनत अर्थियाँ देखी हैं. वहीं मालूम हुआ था कि अर्थी की साज-सज्जा मृतक की जाति, धर्म, पंथ, आर्थिक हैसियत, लिंग, उम्र, वैवाहिक स्थिति आदि सबकी ओर संकेत करती है. शवयात्रा में अर्थी के साथ चलते हुए राम नाम सत्यबोला जा रहा है या हरि बोल’, इससे भाषिक समुदाय का भी पता चल जाता है. यदि गाते-बजाते, ढोल-मंजीरे के साथ भजन-कीर्तन करते, खील-बताशा लुटाते, सिक्के लुटाते हुए कोई अर्थी ले जाई जा रही है तो ज़रूर वह पूरी उम्र जीकर विदा होनेवाले इंसान की है या तथाकथित छोटी जाति के बंदे की. औरत है तो कफ़न के नीचे से झाँकता उसका साज-श्रृंगार उसके सुहागिन होने की गवाही दे देगा, भले यह छुप जाएगा कि अर्थी पर लेटी उस औरत ने दहेज़ की प्रताड़ना झेली या शराबी घरवाले की मार ने उसे दम तोड़ने पर मजबूर कर दिया. औरत ही नहीं, हिंसा, वंचना और अभाव को लेकर सबकी अर्थी निर्विकार होती है. 

धर्म से अर्थी का सीधा जुड़ाव है. दाह संस्कार जिन जिन धर्मों में होता है उसमें श्मशान तक पहुँचाने के लिए इसका प्रयोग होता है. साधुओं-संतों  को समाधि दी जाती है तो उन्हें भी समाधि स्थल तक ले जाने की यात्रा तय करनी होती है. बच्चों के लिए अलग विधान है. मुसलमानों और ईसाइयों में संदूकनुमा ताबूत होता है जिसे हम डिब्बाबंद अर्थी के रूप में समझ सकते हैं. दफ़नाने के लिए कब्रिस्तान तक का सफ़र उसी में तय होता है. अलग अलग धर्मों में अंतिम संस्कार के और जो भी तरीके हैं वे सब किसी न किसी रूप में शवयात्रा तो निकालते हैं और ज़ाहिर है बदले हुए नाम व रूप में अर्थी मौजूद रहती होगी. दरअसल अर्थी और कुछ नहीं, एक पात्र है. शक्लो सूरत जुदा जुदा हो सकती है, मगर काम और धर्म अर्थी का एक ही है. यह पात्र सुरक्षित रहता है और जो उस पर सवार हो उसे रुखसत कर दिया जाता है.

हाँ जी, अर्थी नहीं जलाई जाती है. कहते हैं बाँस को जलाना पाप है. नहीं तो पितृदोष लगेगा और पीढ़ी दर पीढ़ी रोगग्रस्त हो जाएगी. इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी ढूँढा जाता है. कहा जाता है कि दरअसल बाँस को जलाने से उसमें मौजूद लेड बहुत नुकसान पहुँचाता है. वह रोग फैलाता है. लेकिन यह वैज्ञानिकता की आड़ में पुरानी धारणाओं को न्यायसंगत ठहराना है. बाँस के अलावा दूसरी लकड़ी से भी अर्थी बनती होगी और उनसे जुड़ी दूसरी-तीसरी मान्यताएँ भी होंगी. उनकी पड़ताल करनी चाहिए.

लोकव्यवहार में अर्थी को लेकर कई टोटके हैं. जो अशुभ माना जाता है वह स्वाभाविक रूप से भयोत्पादक माना जाता है. अर्थी देखते ही प्रणाम की मुद्रा में उठे हाथ में कितना विनय है, कितनी समवेदना, कितनी आशंका इसका पता लगाना चाहिए. सपने में अर्थी दिखे या शुभ कार्य के लिए प्रस्थान करते समय अर्थी पर नज़र पड़ जाए तो समझो खलल पड़नेवाला है. मैं यह नहीं मानती. अलगाव और दूरी बरतने के लिए यह सब कहा जाता है. मेरे लिए अर्थी अहंकार छोड़कर विनम्र बनने, ज़मीन पर रहने का टोकारा है. आप दो कदम भी उसके साथ चल लिए तो समझो खुद के साथ चले.

जोड़ा कहो या विपरीतार्थक कहो, डोली के साथ अर्थी का ज़िक्र अक्सर आता है. ज़ाहिर है लड़की को लेकर. उसका सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाता  है कि जहाँ उसकी डोली जाए वहीं से उसकी अर्थी उठे. इस बीच उसको कितना भी कष्ट हो उसे ससुराल नहीं छोड़ना है. मतलब औरत की अर्थी कहाँ से और कब निकलेगी, इसकी कड़ी पहरेदारी है. शादी के पहले भी उसके कदम कैसे-कहाँ पड़े, इसका हिसाब रखा जाता है. वह चुकता होता है अर्थी उठाने के वक्त. मुझे काफी पहले का एक समाचार याद है. दूसरे धर्म के लडके के साथ अपनी मर्ज़ी से बेटी के चले जाने के महीने भर बाद बीमार बाप की मौत हुई तब अर्थी उठाने मोहल्ले से कोई नहीं आया था.

यहाँ बरबस पंडिता रमाबाई का ध्यान हो आया. साल था 1874 और महीना था इसी अगस्त का. महाराष्ट्र के कोंकणस्थ चितपावन ब्राह्मण परिवार का. जाति में सर्वोच्च, लेकिन एकदम विपन्न. परम विद्वान् पिता पंडित अनंत शास्त्री डोंगरे दान-पुण्य करते हुए और अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ाने की सज़ा भुगतते हुए जगह जगह भटक रहे थे. अकाल ने उनकी फटेहाली बढ़ा दी. जुलाई में उनकी मृत्यु हो गई. मुलानो, मला थोड़े साखरपाणी घ्याकहते हुए बुखार में तड़पते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए. अगस्त में लक्ष्मीबाई डोंगरे भुखमरी से चल बसीं. उनके अंतिम संस्कार का सवाल उठा. उनकी बदहाली देखकर लोगों को उनके ब्राह्मण होने पर ही संदेह हो रहा था. किसी तरह जहाँ रमाबाई का परिवार टिका हुआ था वहाँ बगल के दो ब्राह्मण सहायता के लिए तैयार हुए. शास्त्रानुसार अर्थी उठाने के लिए चार पुरुष चाहिए. तीसरा पुरुष रमाबाई का बड़ा भाई श्रीनिवास था. चौथा पुरुष जब कोई न मिला तो रमाबाई ने अपनी माँ की अर्थी को कंधा दिया. उनका कद छोटा था जिसकी भरपाई की लकड़ी के बड़े बड़े टुकड़ों ने. उन्हें अपने कंधे के ऊपर रखकर रमाबाई ने अर्थी का संतुलन बनाया.

यह अर्थी कितना कुछ माँगती है ! चार मज़बूत कंधे और वह भी लगभग बराबर ऊँचाई के. इसकी आड़ लेकर लोगों को बेटा चाहिए. उसी के कंधे का आसरा खोजा जाता है. उसमें भी समान जाति और धर्म के कंधे को ही अनुमति है अर्थी उठाने की. याज्ञवल्क्य स्मृतिदो वर्ष से कम आयु वाले बालक के मरने पर उसे भूमि में गाड़ देने और उसके लिए उदकदान नहीं करने का निर्देश देकर दो से अधिक आयु वाले के मरने पर श्मशान तक ज्ञाति यानी सपिण्ड, समान जातिवालों के साथ जाने की बात कहती है - 
                  
                  ऊनद्विवर्षं निखनेन्न कुर्यादुदकं ततः ।
                  आश्मशानादनुव्रज्य इतरो ज्ञातिभिर्वृतः॥

अर्थी का पूरा कार्य व्यापार पुरुषों पर टिका है. वह भी जाति-धर्म सबकी दर्जाबंदी को सुरक्षित रखते हुए. इसको चुनौती देने की कोशिश बीच बीच में होती रही है. कई लड़कियों ने मजबूरी में नहीं, बल्कि सोच-समझकर यह कदम उठाया है. लोग उनकी पीठ ठोंकते हैं, मगर खुद अपने घरों की लड़कियों को अर्थी छूकर प्रणाम करने भर की इजाज़त देते हैं. आज तक अर्थी के साथ श्मशान स्थल जाने तक के लिए लड़कियों को संघर्ष करना पड़ता है, लोगों की टीका-टिप्पणी का निशाना बनना पड़ता है.

अर्थी मोहल्ले से लेकर समुदाय और गाँव-जवार से लेकर राष्ट्र तक की इज्ज़त का प्रतीक बन जाती है. इसलिए उसकी इज्ज़त की हिफ़ाज़त सबका धर्म माना जाता है. गहराई में जाकर देखने पर लगता है कि एक अदद रूखी-सूखी अर्थी पर भार बहुत है. वह कब सीमा में तब्दील हो जाती है, पता नहीं चलता. पट्टीदारों में झगड़ा हो तो अर्थी को हाथ लगाने पर ऐतराज़ होता है. किसी ने खुंदक में कंधा देने से मन कर दिया तो आजीवन मनमुटाव हो जाता है. किसी को सज़ा देनी हो तो उसे अर्थी न छूने का फरमान सुना दिया जाता है.

कभी कभी सद्भाव के चलते सीमाएँ टूटती हैं. हाल ही में सहारनपुर के तीर्थस्थल शाकंभरी देवी जाने के क्रम में हादसे में मारे गए 4 हिन्दू तीर्थ यात्रियों की अर्थी को इलाके के मुसलमानों ने कंधा दिया. इस खबर को गर्म सांप्रदायिक माहौल में ठंडी फुहार के रूप में देखा गया. यह सांकेतिक रूप से अच्छा है, लेकिन क्या इससे आग बुझेगी ? और फिर यह सद्भाव दिखाने का दायित्व क्या दूसरी तरफ से भी निभाया जाएगा ? ‘मॉब लिंचिंगमें या घर में घुसकर मार डाले किसी बेगुनाह के जनाज़े में कितने लोग शामिल होंगे ?

हमें हालात में बदलाव चाहिए. यह बदलाव धीरे-धीरे आएगा, समझदारी और संवैधानिक अधिकार के रथ पर सवार होकर. किसी चमत्कार से नहीं. हमें वैसा चमत्कार नहीं चाहिए जो संतों ने किया कि अपनी महिमा से मृत को अर्थी से उठाकर ज़िंदा कर दिया. (आपको ऐसे किस्से हर जगह मिल जाएँगे. ज़रूरी नहीं कि वे गुजरात के संत जलाराम उर्फ़ बापा या महाराष्ट्र के समर्थ स्वामी जैसे बड़े चमत्कार हों.) हमें इंसान की गरिमा की रक्षा जीते जी करनी है और मरने के बाद भी. 

लोग कहते हैं कि अर्थी सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर देती है, लेकिन सिर्फ उसे जो चला गया हो. खुद अर्थी बाज़ार के दाँव-पेंच से मुक्त नहीं है. अभी GST के शोर शराबे में यह बात आई कि अब कफ़न और अर्थी पर भी टैक्स लगेगा. इसे नीचता, अमानवीयता, संस्कारहीनता का चरम बताया जा रहा था. जवाब ठंडा दिया जा रहा था कि मामला मेटेरियलका है और जिसमें जो मेटेरियलहै उस आधार पर टैक्स लगेगा. सीधे यह समझिए कि बिना सिला हुआ कफ़न का कपड़ा और अर्थी का बाँस अब टैक्स के दायरे में है. कहा गया कि हिसाब-किताब साफ़ है, इसलिए जनता को सरकार के कदम का विरोध नहीं करना चाहिए. अब जनता की मुसीबत यह है कि अर्थी पर लगनेवाले टैक्स को एकबारगी वह भले बर्दाश्त कर ले, मगर रोज़ाना ज़िंदगी के कदम कदम पर लगनेवाले इस जानलेवा GST को वह नहीं झेल पाएगी.

चलिए, अब रुकती हूँ. आखिर अर्थी विराम देती है. सबको राम राम.


- http://thewirehindi.com/15738/arthi-ka-arth/



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